पहली पंक्ति का किसान अन्तिम पायदान पर क्यों!

Farmer

असल में किसान कानून की पेचेंदगियों में फंसना नहीं चाहता वह फसल उगाने और उसकी कीमत तक ही मतलब रखना चाहता है यही कारण है कि एमएसपी के मामले में वह एक ठोस कानून चाहता है जिसे लेकर सरकार का रूख टाल-मटोल वाला है। सरकार एमएसपी को लेकर किसान का भरोसा बिना कानून के ही जीतना चाहती है जबकि किसानों पर तीन कानून थोपना चाहती है जो एक तरफा है। किसान न तो तीनों कानून चाहते हैं और न ही सरकार के एमएसपी को लेकर बिना कानून भरोसा कर पा रहे हैं।

‘अन्तिम को पहले रखना’ यह कथन समाज के बुझे हुए तबकों को उभारने की ओर इशारा करते हैं पर यहां तो पहली पंक्ति वाला किसान अन्तिम पायदान पर चला ही गया है। बीते सात दशकों से भारत में खेत-खलिहान समेत किसान पर लगातार प्रयोग जारी है पर नतीजा ढाक के तीन पात ही है। फिलहाल इन दिनों देश के किसान खुले आकाश के तले दिल्ली की सीमा पर अपनी मांग मंगवाने को लेकर डटे हुए हैं। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश देश के कई हिस्सों के किसान मोदी सरकार के तीन कानून के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। सरकार कानून वापस नहीं लेना चाहती और किसान बिना कानून वापसी के वापस नहीं जाना चाहते। सवाल है कि लोकतंत्र में क्या सरकारों का इतना अड़ियल रवैया उचित करार दिया जा सकता है। सरकार और किसान के बीच 5 दौर की वार्ता हो चुकी है नतीजा सिफर है। किसानों का भारत बंद पूरी तरह सफल रहा। मुख्य विपक्षी कांग्रेस समेत कई छोटे-बड़े दल इस मामले में किसानों के साथ हैं।

अवार्ड वापसी का दौर भी इन दिनों जोर पकड़ रहा है। मगर इस कसमकश के बीच खिलाड़ी, कलाकार और आम इंसान भी दो हिस्सों में बंटे दिखाई दे रहे हैं मगर किसानों का पलड़ा भारी है। हालांकि सरकार कानून में कुछ संशोधन का इरादा जता रही है मगर किसान इसे पूरी तरह खत्म करने की बात कह रहे हैं। संसद में किसानों से जुड़े तीन महत्वपूर्ण सुधार की मंजूरी जिस प्रकार से ली गयी है उसमें किसानों से न तो पूछा गया और न ही उनकी जरूरत समझी गयी।

सरकार कानूनों पर सफाई दे रही है और किसान आशंका से भरे हैं। पहला, कृषि, उपज, व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन व सरलीकरण) कानून है जिसे लेकर शंका है कि इससे न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली (एमएसपी) खत्म हो जायेगी और किसान मण्डियों के बाहर उपज बेचेंगे तो मण्डियां समाप्त हो जायेंगी। ऐसे में ई-नाम (इलैक्ट्रॉनिक नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट) जैसी सरकारी ई-ट्रेडिंग पोर्टल का क्या होगा। जबकि सरकार समझा रही है कि यह आशंका बिल्कुल गलत है। दूसरे कानून आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून जिसमें यह आशंका है कि बड़ी कम्पनियां वस्तुओं का स्टोरेज करेंगी, उनका दखल बढ़ेगा साथ ही कालाबाजारी बढ़ सकती है।

इस कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, प्याज और आलू आदि को आवश्यकत वस्तु की सूची से हटाना और युद्ध जैसी अपवाद स्थिति को छोड़कर इन वस्तुओं के संग्रह की सीमा तय नहीं की गयी है जो आशंका को बढ़ा रहा है कि बड़ी कम्पनियां आवश्यक वस्तुओं का भण्डारण करेंगी और किसानों पर शर्तें थोपेंगी ऐसे में उत्पादों की कम कीमत मिलेगी। हालांकि इससे कृषि क्षेत्र में निजी और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा मिल सकता है। मगर किसान को कितना फायदा होगा यह समझना अभी कठिन है। तीसरा और अन्तिम कानून कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून 2020 है। जिसे लेकर आशंका व्यक्त की जा रही है कि कृशि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथ में चला जायेगा। हालांकि सरकार यह स्पष्ट कर रही है कि इस कानून का लाभ देश के 86 फीसद किसानों को मिलेगा और किसान जब चाहें अनुबंध को तोड़ सकते हैं और यदि यही अनुबंध कम्पनियां तोड़ेंगी तो उन्हें जुर्माना भी अदा करना होगा।

खेत हो या फसल मालिक किसान ही रहेगा। वैसे लाभ की दृष्टि से देखें तो कृषि क्षेत्र में अनुबंध के चलते शोध व विकास कार्यक्रमों को बढ़ावा मिल सकता है। किसान आधुनिक उपकरण से युक्त हो सकता है। मगर इन सुविधाओं की कीमत कौन चुकायेगा जाहिर है कॉरपोरेट हर सूरत में लाभ ही चाहेगा। किसानों को डर है कि उपरोक्त तीनों कानून उसकी कई स्वतंत्रताओं और उपज की कीमत को खतरे में डालेंगी।

गौरतलब है कि 1960 में हरित क्रान्ति जब शुरू हुई भारत में खाद्य आपूर्ति को सुधारने के लिए बड़े पैमाने पर काम शुरू किया था और खाद्य स्टॉक रखने लगा। वैसे एमएसपी आधारित खरीद सिस्टम का श्रेय ब्रिटिश सरकार को जाता है। 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अनाज की सरकारी दर पर खरीद होती थी। डेढ़ गुना एमएसपी देने का ढ़िढोरा पीटने वाली मोदी सरकार स्वामीनाथन रिपोर्ट को आज तक लागू नहीं कर पायी जबकि इसे आये हुए डेढ़ दशक हो गये। मुश्किल यह है कि एमएसपी सरकारें तय कर देती हैं मगर यह कीमत किसानों को मिलेगी इसकी गारन्टी नहीं है। कोरोना के इस काल में जब अन्य सेक्टर धूल चाट रहे थे तब कृषि ने विकास दर को बढ़े हुए क्रम में व्यापक विस्तार दिया और भोजन की कोई कमी नहीं होने दी।

वर्तमान में देश में खाद्यान्न संग्रहण क्षमता लगभग 88 मिलियन टन है। मगर 80 प्रतिशत भण्डारण सुविधायें परम्परागत तरीके से ही संचालित होती हैं। कोल्ड स्टोरेज के मामले में तो असंतुलन व्यापक है। अधिकांश कोल्ड स्टोरेज उत्तर प्रदेश, गुजरात, पंजाब और महाराष्ट्र में हैं। इतना ही नहीं दो-तिहाई में तो केवल आलू ही रखा जाता है। जाहिर है उपज के रख रखाव पर भी ध्यान देना होगा। खरीफ फसल अर्थात् धान की खरीदारी बीते 5 दिसम्बर तक पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु समेत राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों 337 लाख मैट्रिक टन हो चुकी है जबकि यह पिछले साल की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक वृद्धि दर लिए हुए है। खास यह भी है कि इस खरीद में अकेले पंजाब से 202 लाख मेट्रिक टन का योगदान है जो कि कुल खरीद का 60 फीसद से अधिक है। इसमें हरियाणा की भी स्थिति बड़े रूप में देखी जा सकती है। कईयों को लगता है कि आखिर पंजाब और हरियाणा के किसान ही आंदोलन में क्यों दिख रहे हैं तो उनके लिए यह आंकड़ा जवाब हो सकता है।

जाहिर है सबसे ज्यादा नुकसान भी इन्हें ही हो सकता है और फायदा भी। आंदोलन का रूख पहले से अलग तो हुआ है। सरकार के माथे पर बल तो पड़ रहा है। पेशोपेश में सरकार है और जिस प्रकार मीडिया ने इस आंदोलन को लेकर एक ओछा और हल्का तरीका लिया था उसे भी लग रहा होगा कि उसने क्या त्रुटि की है। किसान देश का अन्नदाता है सभी का पेट भरता है और चाय की चुस्की के साथ किसानों पर शक करने वालों को भी यह आंदोलन एक सबक होगा। हालांकि रास्ता समाधान की ओर जाये तो ही अच्छा रहेगा। एक राहत भरे फैसले की उम्मीद सरकार से तो है। गौरतलब है कि लोकतंत्र में सरकार लोक सशक्तिकरण के लिए होती हैं और मोदी सरकार तो सुशासन के लिए जानी जाती है। जहां लोक कल्याण, संवेदनशीलता और समावेशी विकास निहित होता है ऐसे में किसानों के मन माफिक समाधान देना इनकी जिम्मेदारी बनती है।

                                                                                                        -डॉ. सुशील कुमार सिंह

 

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