संपादकीय : मंजिल अभी दूर

Tokyo-2020

32 वें ओलंपिक खेल का समापन हो गया है। पहली बार सबसे ज्यादा सात पदक भारत की झोली में आए हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय हॉकी ने वापिसी की है लेकिन आठ स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम की मंजिल अभी दूर है। जैवलिन थ्रो में देश ने जरूर स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रचा है। लड़कियों का हॉकी के सेमीफाईनल में प्रवेश करना भी एक बड़ी उपलब्धि है। देश में जश्न का माहौल बना हुआ है, खिलाड़ियों ने अपने बीते समय की असफलताओं से उभरकर शानदार प्रदर्शन किया और नतीजा टोक्यो ओलंपिक में भारत का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देखने को मिला, लेकिन यहां बताना जरूरी है कि खेल संबंधी व्यवस्थाओं में कोई नया बदलाव नहीं हुआ।

130 करोड़ की जनसंख्या वाला देश 30 पदक भी नहीं प्राप्त कर सका। इस विषय पर मंथन करना होगा कि अमेरिका इस बार भी 113 पदकों के साथ प्रथम स्थान पर है। चीन के हिस्से 88 पदक आए और हमारा देश 48वें नंबर पर आया। जापान-ब्रिटेन जैसे कम जनसंख्या वाले देश भी हमारे से कहीं आगे हैं। खेलों के लिए उतना नहीं किया जा रहा है, जितना दूसरे देश कर रहे हैं। हमें भूलना नहीं चाहिए कि हम स्वर्ण की दौड़ में उस बेल्जियम से हार गए थे, जिसकी आबादी डेढ़ करोड़ भी नहीं है। दर्जनों छोटे-छोटे देश हमारे से आगे निकल गए। दरअसल हमारे देश में ‘खेल’ व्यवस्था और समाज का आवश्यक अंग नहीं बन सके हैं। संचार क्षेत्र के विकास ने गलियों और खुले मैदानों में खेलने वाले बचपन को मोबाइल फोन थमाकर कमरों में कैद कर दिया। इलैक्ट्रॉनिक्स खिलौनों ने पारंपरिक खेलों को खत्म कर दिया।

खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता में गिरावट आई। दूध, घी, मक्खन, गुड़, दही, पनीर की बजाय बचपन चॉकलेट, सॉफ्ट डिंÑक, पैकेजिंग खाद्य पदार्थों का सेवन कर रहे हैं। खेलों में सुधार चाहिए तो खिलाड़ियों को पुरुस्कार देने व प्रतियोगिताओं के मौके पर याद करने की विचारधारा को छोड़ना होगा। खेल नीतियों का निर्माण देश की संस्कृति के साथ तालमेल बनाकर करना होगा। कभी गांवों की पहचान पहलवानों के नाम से होती थी। हर पांच-सात गांवों का एक पहलवान होता था। अब पूरे राज्य में 10 पहलवान भी नजर नहीं आते।

खेलों में सुधार के लिए देसी खुराक को अपनाना होगा। छोटे-छोटे देशों ने खेलों पर किस तरह से तन-मन-धन का निवेश किया है, भारत के लिए इसे देखने-परखने का माकूल वक्त है। भारतीय हॉकी में आई नई चमक बेकार नहीं जानी चाहिए। अब जीत के जश्न को केवल खिलाड़ियों को पुरुस्कार राशि देने तक सीमित नहीं रहना चाहिए। बल्कि यह चिंतन का वक्त है। हमे मंथन करना होगा कि अभी हम इतने पीछे क्यों हैं?, और हम कैसे आगे बढ़ सकते हैं। खेलों में सुधार के लिए सरकारें, खेल संघों और खिलाड़ियों को मिलकर नीतियां बनाने की आवश्यकता है। खेल नीतियों को राजनेताओं के दायरे से बाहर निकालकर खेल से जोड़ा जाए, यह समय की मांग है। असफलताएं सीखने के लिए काफी हैं।

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