दंतहीन निर्वाचन आयोग, नेताओं की मौज

Election Commission

खे मसालेदार चुनावी मौसम में हमारे नेतागणों में लगता है बॉलीवुड से प्रेरणा ली है और वे अपनी ओर से मनोरंजन का नया संस्करण पैदा कर रहे हैं। जिसमें वे जाति और संप्रदायों का तड़का लगा रहे हैं। साथ ही पैसा और सीटियों का घालमेल बना रहे हैं और यह सब इस आशा में किया जा रहा है कि इससे उन्हें राजनीतिक तृप्ति मिलेगी। चुनाव 2019 में आपका स्वागत है जहां पर अनैतिकता का बोलबाला है, देश भक्तों से लेकर देशद्रोहियों तक इस खेल की शुरूआत मोदी ने की जिन्होने कांग्रेस और हर उस व्यक्ति को पाकिस्तान का प्रवक्ता बताया जो बालाकोट हमले पर प्रश्न उठा रहा है तो इसका उत्तर चैकीदार चोर है कहकर दिया गया। जिसके चलते ऐसा वातावरण बन गया है कि राजनीति अपशब्दों और घृणा का खेल बन गया है। निर्वाचन आयोग की आदर्श आचार संहिता राजनीतिक पतिद्वंदियों और जानी दुश्मनों के पास सबसे शक्तिशाली मिसाइल है। चुनाव प्रचार के दौरान सामान्य आचरण, बैठकों, जुलूसों, चुनाव के दिन मतदान केन्द्रों पर पर्यवेक्षक और सत्तारूढ दल के संबंध में आयोग के साथ दिशा-निदेर्शों की सब उपेक्षा कर रहे हैं और आखिर होगा भी क्यों नहीं यदि हमारे नेता जिस चीज का उपदेश देते हैं यदि उसे अपने आचरण में भी ढालने लगे तों फिर उनका दोगलापन कैसे सफल होगा।

चुनावों का तात्पर्य प्रतिपक्षी पर बढत प्राप्त करना है और इस क्रम में वे निर्वाचन आयोग और आदर्श आचार संहिता का भी भूल जाते हैं क्योंकि उनके लिए परिणाम सर्वोपरि है। इसके लिए दोषी कौन है? सभी राजनीतिक पार्टियां। हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ निर्वाचन आयोग के निशाने पर आए क्योकि उन्होने भारत की सशस्त्र सेनाओं को मोदी की सेना कहा और निर्वाचन आयोग ने उन्हें फटकार लगाते हुए भविष्य में सावधानी बरतने की चेतावनी दी। उसके बाद मोदी भक्त राजस्थान के राज्यपाल और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कहा ह्यह्यहम भाजपा के कार्यकर्ता हैं। हम निश्चित रूप से चाहते हैं कि भाजपा जीते। देश और समाज की खातिर हर कोई चाहता है कि मोदी जी एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनें।ह्णह्ण वे भूल गए कि वे एक संवैधानिक पद पर विराजमान हैं। निर्वाचन आयोग ने राष्ट्रपति से उनकी शिकायत की और उनके विरुद्ध कार्यवाही करने की अनुमति मांगी तथा राष्ट्रपति ने इस शिकायत को गृह मंत्रालय को भेज दी और इस पर अभी निर्णय प्रतीक्षित है।

बसपा की मायावती ने मोदी और कांग्रेस को एक ही तीर से निशाने पर लिया और नोटबंदी को आपातकाल की तरह बताया जिसके चलते उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ेगा। इस पर एक भाजपा नेता ने कहा मायावती खुद रोज फेसियल करवाती हैं। उनके बाल पके हुए हैं और रंगीन करवाकर आज भी अपने आपको मायावती जवान साबित करती हैं। साठ वर्ष उमर हो गयी है लेकिन सब बाल काले हैं।ह्णह्ण सपा के अखिलेश यादव कहते हैं क्या राफेल सौदे में चोरी को रोकने के लिए कोई चैकीदार है? निर्वाचन आयोग ने नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार द्वारा भाजपा के प्रवक्ता की तरह बात करने पर अपनी नाखुशी व्यक्त की। राजीव कुमार ने कांग्रेस की न्याय योजना के बारे में कहा था कि कांग्रेस कहती कुछ और है और करती कुछ और है। आज ऐसे बयान सोशल और डिजिटल मीडिया में वायरल हो जाते हैं और इससे प्रश्न उठता है कि ऐसे बयानों पर तुरंत कार्यवाही क्यों नहीं होती है।

आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में दोषियों को दंडित करने की दर कम होने के कारण ऐसे मामले केवल प्रतीकात्मक रह गए हैं। यदि आदर्श आचार संहिता को कानूनी दर्जा दिया जाता तो इस मामले में दर्ज प्राथमिक रिपोर्ट और मजबूत होती। क्या आदर्श आचार संहिता को सांविधिक दर्जा दिया जाएगा जैसा कि कार्मिक लोक शिकायत विधि और न्याय संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने 2013 में सिफारिश की थी। विशेषज्ञों का मानना है कि आदर्श आचार संहिता नैतिकता पर निर्भर है और इसमें कानून का भय नहीं है। चुनाव प्रचार में अपशब्दों के प्रयोग के बढने के कारण उम्मीदवार चुनाव प्रचार को गंदा बना देते हैं। आदर्श आचार संहिता का पालन उम्मीदवार की सत्यनिष्ठा और क्षमता पर निर्भर करता है तथापि अभी निराश होने की आवश्यकता नहीं है। आदर्श आचार संहिता चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने के लिए उम्मीदवारों पर नैतिक दायित्व डालता है किंतु इसकी कई बातें विभिन्न कानूनों के अंतर्गत आती हैं जिसके चलते निर्वाचन आयोग भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत मामले चलाने के आदेश दे सकता है। एक पूर्व निर्वाचन आयुक्त के अनुसार चुनावों के दौरान विशेषकर वरिष्ठ नेताओं के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराना अपने आप में उचित नहीं है।

वर्तमान में नेता मतदाताओं के समक्ष गलत ढंग से पेश आ रहे हैं और इसीलिए अधिकतर नेता आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करते हैं और उनको फटकार लगायी जाती है और सामान्यतया वे ऐसी गलती दोहराते नहीं हैं। अनेक नेता आदर्श आचार संहिता को कानूनी दर्जा देने के पक्ष में हैं। इससे वे चुनाव के दौरान नैतिकता के बंधन से मुक्त हो जाएंगे। वर्तमान में जब निर्वाचन आयोग उम्मीदवारों को कारण बताओ नोटिस जारी करता है तो उन्हें 48 घंटे के भीतर जवाब देना होता है। यह एक प्रतिरोधकता का कार्य करता है जबकि न्यायालय में मामले जाने पर वे लंबे समय तक लटक सकते हैं। किंतु इसका एक पहलू यह है कि उम्मीदवार आदर्श आचार संहिता का स्वेच्छा से पालन करने की बात मानता है इसीलिए 2013 में संसदीय स्थायी समिति ने इसे सांविधिक दर्जा देने की बात कही थी।

इसी चुनाव में नहीं अपितु हर चुनाव में निर्वाचन आयोग को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है और जब तक चुनाव आयोग इन समस्याओं का निराकरण ढूंढ पाता है तब तक मतदान हो चुका होता है। इसलिए आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन अपने आप स्वत: समाप्त हो जाता है। सच यह है कि आदर्श आचार संहिता निर्वाचन आयोग और राजनीतिक दलों के बीच एक स्वैच्छिक करार है और इसमें कोई कानूनी बंधन नहीं है। राजनीतिक दल और उम्मीदवार इसका अधिकाधिक उल्लंघन कर रहे हैं और इस मामले में आयोग शक्तिहीन है। एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार आदर्श आचार संहिता को कानूनी स्वीकृति प्राप्त नहीं है और यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में नैतिक पुलिस के रूप में कार्य करता है। हम केवल पार्टी का चुनाव चिह्न जब्त कर सकते हैं या राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उसकी मान्यता समाप्त कर सकते हैं। इसका तात्पर्य है कि यदि कोई व्यक्ति आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करता ही जाए तो वह फिर भी लोक सभा और विधान सभा के लिए निर्वाचित होता रहता है।

समय आ गया है कि आदर्श आचार संहिता पर पुनर्विचार किया जाए। आदर्श आचार संहिता को कानून बनाया जाए और निर्वाचन आयोग को दंडात्मक कार्यवाही करने की शक्ति दी जाए। आयोग के एक अन्य अधिकारी के अनुसार वर्तमान में हमारी शक्तियां राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन तक सीमित है और उन शक्तियों का हमेशा प्रयोग नहीं किया जा सकता है। आयोग हर बार पार्टी का चुनाव चिह््न जब्त नहीं कर सकता है। जो उम्मीदवार आदर्श आचार संहित का उल्लंघन करता है आयोग उस पर जुमार्ना लगाने, उसे अयोग्य घोषित करने और यहां तक कि चुनाव रद्द करने के बारे में विचार कर सकता है। हमारे नेतागणों के अभद्र व्यवहार का खूब प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए तथा सरकार और राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवारों को फटकार लगानी चाहिए किंतु इससे पूर्व हमें आयोग को अधिक शक्तियां देनी होंगी।

आदर्श आचार संहिता कभी भी काननू का रूप नहीं ले सकता क्योंकि इसके विरुद्ध अनेक राजनीतिक हित जुड़े हुए हैं। इसलिए आज के वातावरण में राजनीति में नैतिकता के निचले स्तर पर चिंता व्यक्त करना मूर्खता है क्योंकि अंतत: जो जीतता है वहीं सिकंदर बनता है और नुकसान जनता को उठाना पड़ता है और यह व्यवस्था सरकार, राजनेता और राजनीति सब आम जनता को बेहतर जीवन से वंचित करने का खेल बन जाता है। हमारा देश अगली लोक सभा के लिए मतदान करने जा रहा है इसलिए राजनीतिक दलों को आम जनता को सहजता में नहीं लेना चाहिए। हमारे लोकतंत्र को वास्तव में प्रातिनिधिक बनाने के लिए चुनाव सुधार अविलंब लागू किया जाना चाहिए। ऐसे निर्लज्ज और स्वार्थी नेताओं को अपना मत नहीं देना चाहिए जो अनैतिकता को बढावा देते हैं। क्या अनैतिकता भारत के लोकतंत्र का आधार बनेगा? क्या कोई देश नैतिकता के बिना रह सकता है? और कब तक? जरा इस पर विचार अवश्य करें।

 

 

 

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