भाषा की मर्यादा को तार-तार करती राजनीति

General elections in the country

नाव आते ही नेताओं को जनता की याद आने लगती है। वहीं नेताओं में एक नये जोश का संचार भी हो जाता है। जोश आता है, तो बयानबाजियां होने लगती हैं। फिर शुरू होते हैं बिगड़े बोल। देश में आम चुनाव होने वाले हैं, नेताओं की जुबान फिर से फिसलने लगी है। फिर टपकने लगा है उनकी जुबान से अपने विरोधियों के लिये विष। कभी सांप्रदायिक, तो कभी आपत्तिजनक और अपमानजनक बयान लगातर सामने आ रहे हैं। इस बयानबजी में कोई भी पार्टी पीछे नहीं है। लेकिन, इन बयानों का क्या असर पड़ता है, इससे नेताओं को कोई सरोकार नहीं होता।

वो तो बस टीवी पर अपनी टीआरपी बढ़ाने, अखबार की सुर्खियां बनने और जनता की तालियां बटोरने तक ही खुद को केन्द्रित रखते हैं। ये भी कहा जा सकता है कि येन-केन-प्रकरेण नेता चर्चा में बना रहना चाहते हैं। हमारे देश में नेताओं की बदजुबानी तो आम बात है। चुनाव आते ही नेताओं की फौज जनता का रुख करती है। इस दौरान अपने भाषणों में कब उनके बोल बिगड़ जाएं, इसकी कोई गारंटी नहीं होती। वर्तमान में ऐसा प्रतीत हो रहा है मानों अमर्यादित बयानों की एक बाढ़ सी आ गई हो। अनैतिक भाषा का प्रयोग करके हर पार्टी अपने-अपने स्तर पर इसमें योगदान दे रही है। अगर किसी को याद होगा तो वह इस तथ्य से भलीभांति परिचित होगा कि असहमतियां और विरोध शुरू से राजनीति का अभिन्न अंग रहे हैं। कई कद्दावर नेता ठोस तर्को के आधार पर विभिन्न विषयों पर जोरदार ढंग से अपना विरोध जताते रहे हैं।

पिछले साल दिसंबर में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान भी नेताओं ने जमकर अमर्यादित बयानबाजी की थी। इस दौरान तमाम नेताओं ने ऐसे बयान दिए जो उनके लिए परेशानी का सबब बन गए। क्योंकि हाथ में स्मार्ट फोन लिए मतदाताओं ने उनके वीडियो बना लिए और यह सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। पुराने ढर्रे पर चुनाव प्रचार कर रहे नेता इस बात का अंदाजा नहीं लगा पाए की तकनीक कितना आगे बढ़ चुकी है। इनमें कई मामलों में चुनाव आयोग ने कार्रवाई भी की। देखा जाए तो देश का यह दुर्भाग्य है कि विरोध और असहमतियां जताने का जो अप्रतिष्ठाजनक रूप हमें आज देखने को मिल रहा है, शायद ही किसी दौर में मिला हो।

यह गिरावट चैतरफा है। बड़े रास्ता दिखा रहे हैं, नए उनसे सीख रहे हैं। टीवी और सोशल मीडिया इस विद्रूप का प्रचारक और विस्तारक बना हुआ है। न पद का लिहाज, न आयु का, ना ही भाषा की मर्यादा-सब इसी हमाम में नंगे होने को आतुर हैं। राजनीति से व्यंग्य गायब है, हंसी गायब है, परिहास गायब है- उनकी जगह गालियों और कटु वचनों ने ले ली है। राजनीतिक विरोधी के साथ शत्रु की भाषा बोली और बरती जा रही है। यह संकटकाल बड़ा है और कठिन है।

सच तो ये है कि तमाम नेतागण वही बोल रहे हैं जैसा वो बुनियादी तौर पर सोचते और समझते हैं तथा बोलना चाहते हैं। आप ये भी गांठ बांध सकते हैं कि किसी भी पार्टी के बड़े नेता या स्टार प्रचारक की जुबान कभी नहीं फिसलती! दरअसल, नेता बनता ही वही है, और माना ही उसे जाता है जिसका उसकी वाणी पर संयम हो। इस लिहाज से कोई भी नेता अपरिपक्व या परिपक्व नहीं होता! सभी अपनी सियासी सहूलियत के मुताबिक ‘बुरा न मानो होली है’ की तर्ज पर असंख्य सच-झूठ गढ़ते एक-दूसरे का तियापांचा करते हैं। इसीलिए चुनावी मौसम में नेताओं के बेसुरे राग वैसे ही स्वाभाविक बन जाते हैं, जैसे बरसात में मेढ़कों की टर्रटर्र!

चुनावी भाषणों में नेताओं के बिगड़ते बोल अहसास कराते हैं कि उनकी पार्टी का अन्दरुनी हाल क्या है? जब गम्भीर मुद्दों को व्यक्तिगत छींटाकशी से निपटाया जाए तो समझिए कि ऐसा करने वाला नेता अपनी खीझ मिटाने के लिए परेशान है। मसलन, यदि कोई नोटबन्दी पर जनता को हुई परेशानियों का जिक्र करे और जवाब में दूसरा ये चर्चा नहीं करे कि परेशानी वास्तव में है भी या नहीं? है तो कैसी, कितनी और क्यों है? बल्कि मुद्दे को भटकाने के लिए कहा जाए कि नोटबन्दी की आलोचना करने वाले खुद की तकलीफ का रोना रो रहे हैं क्योंकि वो खुद परिवारवाद और भ्रष्टाचार के पोषक हैं।

राजनीतिक विशलेषकों के अनुसार, लम्बे चुनाव प्रचार की वजह से नेताओं की लफ्फाजियां बहुत लम्बी खिंच जाती हैं। रोजाना एक के बाद एक रैली में बोलने के लिए नयी बातों का अकाल पड़ जाता है तो बेसिरपैर की बातों की पौ-बारह हो जाती है। वहीं नेताओं के बिगड़े बोल की सबसे बड़ी वजह ये है कि वोटिंग के चरणों के आगे बढ़ने के साथ ही राजनीतिक दलों को जनता के रूझान का फीडबैक मिलने लगता है।

अपने आन्तरिक सर्वेक्षणों के आधार पर हरेक नेता नतीजों की आहट भांप लेता है। जनादेश का रुझान जिसके पक्ष में होता है उनकी भाषा संयत रहती है। जबकि विरोधी की बोली बौखलाहट, बदहवासी और चिड़चिड़ागट साफ दिखने लगती है। बड़ी रैलियों से हौसला तो बढ़ता है, लेकिन भीतर से मूड उखड़ा ही रहता है कि भीड़, वोटों में तब्दील क्यों नहीं हो रही? दूसरी वजह होती है जनता की तालियां बटोरना, जो अमर्यादित वाणी और छिछोरी बातों पर आसानी से मिल जाती है। यही छिछोरापन या स्तरहीनता, मीडिया में सुर्खियां पाती हैं तो नेतागणों को लगता है कि तीर निशाने पर लगा है। असल में चुनावी भाषणों में नेताओं के बिगड़ते बोल अहसास कराते हैं कि उनकी पार्टी का अन्दरुनी हाल क्या है? जब गम्भीर मुद्दों को व्यक्तिगत छींटाकशी से निपटाया जाए तो समझिए कि ऐसा करने वाला नेता अपनी खीज मिटाने के लिए परेशान है।

आलोचना, विरोध, षड्यंत्र का अंतर भी लोग भूल गए हैं। आलोचना अगर स्वस्थ तरीके से की जाए, अच्छी भाषा में की जाए तो भी प्रभाव छोड़ती है। अच्छी भाषा में भी कड़ी से कड़ी आलोचना की जा सकती है। किंतु इस टीवी समय में राजनेता की मजबूरी कुछ सेकेंड की बाइट में बड़ा प्रभाव छोड़ने की रहती है। ऐसे में वह कब अपनी राह से भटक जाता है उसे खुद भी पता नहीं लगता। भाषा की गिरावट का यह दौर आने वाले समय में भी रूकने वाला नहीं है। टीवी से सोशल मीडिया, फिर मोबाइल टीवी तक यह गिरावट जारी ही रहने वाली है। हमारे समय का संकट यह है कि राजनीति में आदर्श हाशिए पर है।

शुचिता और पवित्रता के सवाल राजनीति में बेमानी लगने लगे हैं। वास्तव में चुनावी समर के शंखनाद के साथ ही चुनावी भाषणों के दौरान अमर्यादित होती भाषा शैली एक गंभीर चिंता का विषय है। अपने विरोधियों पर तंज कसते हुए अभद्र भाषा का प्रयोग करना एक फैशन बनता जा रहा है। इससे कोई भी दल अछूता नहीं है। निश्चय ही इसके लिए चुनाव आयोग को गंभीरता से कठोर कदम उठाने चाहिए। विडंबना है कि लाइव टीवी डिबेट में व्यक्तिगत आक्षेप से लेकर गाली-गलौज तक उतारू होते उनके प्रवक्ताओं को उनकी पार्टी संस्कार नहीं सिखाती। लोकतंत्र में ऐसे राजनीतिज्ञों से क्या उम्मीद की जा सकती है!

बहरहाल, भारतीय राजनीति में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी नहीं देखी गई। एक दौर में हमारे राजनेताओं का आचरण शालीन और विनम्र होता था। आज के दौर में गिने-चुने राजनेता ही ऐसे रह गए हैं, जो अपने बोलचाल में मर्यादित भाषा का उपयोग करते हैं। प्रसिद्ध समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया शायद इसीलिए कहते थे ‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’ लेकिन हमने देखा उनके अनुयायियों ने लोकलाज की सारी सीमाएं तोड़ दीं। वहीं पं. दीनदयाल उपाध्याय भी हमें चेताते हैं कि अगर राजनीतिक दल गलत उम्मीदवारों को आपके बीच भेजते हैं तो राजनीतिक दलों की गलती ठीक करना जनता का काम है। पहले से ही देश में नेताओं के कटुतापूर्ण व्यवहार और अशालीन भाषा के उपयोग के कारण बेचैनी भरा माहौल बना हुआ है। अब नई फौज के नेताओं ने भी उसी राह को पकड़ लिया है। कम से कम अब तो हम भाषा की मर्यादा के प्रति गंभीर हो जाएं। देश की जनता नेताओं के आचरण पर नजरें टिकाए है, और वो समय आने पर अपना निर्णय भी सुनाएगी।

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