राजनीतिक फैसलों में खोया भारतीय लोकतंत्र

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भारतीय संविधान में लोकतांत्रिक प्रणाली की स्थापना की गई है लेकिन जैसे-जैसे लोकतंत्रीय प्रणाली का समय गुजरता जा रहा है, उसी तरह लोकतंत्र को जंग खाए जा रही है। राजनीतिक पार्टियां भले ही सत्ता में हों या विपक्ष में, उनके बाहरी व आतंरिक सिस्टम में लोकतंत्र को कुचला जा रहा है। राष्ट्रीय से लेकर क्षेत्रीय पार्टियों में भी यह देखा जा सकता है और इनका विरोध भी हो रहा है। पार्टी में अलग सोच रखने वाले नेताओं को बागी कहकर दरकिनार कर दिया जाता है, तब फिर कुछ फैसले किसी एक नेता के विचारों के अनुसार थोपे जाते हैं, जिसकी आलोचना न केवल विरोधी बल्कि पार्टी के अपने नेता भी करने लगते हैं। सख्त व जल्दबाजी में फैसले लेने के नाम पर संवैधानिक संस्थाओं व मर्यादाओं का हनन हो रहा है। सीबीआई जैसी संस्था व सरकार में संबंध इतने बदनाम हो चुके हैं कि केंद्र सरकार पर सीबीआई जांच एजेंसी को तहस-नहस करने के आरोप लग रहे हैं। निष्पक्ष कार्रवाई, सबूत छुपाने की रणनीति, फैसले लेने और लागू करने की ताकत शासन के लिए जरूरी है, इसके बावजूद संवैधानिक संस्थाओं की प्रतिष्ठा को बरकरार रखना जरूरी है। लोकतंत्र की कमी सरकारों के साथ-साथ पार्टियों के आंतरिक ढांचें के लिए संकट बनती जा रही है। दबे हुए नेता पार्टी पर गुस्सा निकालने लगते हैं। केंद्र में सरकार चला रही भाजपा में यशवंत सिन्हा व जसवंत सिंह परिवार व शत्रुघ्न जैसे नेता पार्टी का विरोध कर रहे हैं। शिरोमणी अकाली दल भी ऐसे संकट का शिकार है, जहां पार्टी की ताकत एक विशेष परिवार के हाथों तक सीमित होने के कारण पुराने व बड़े नेता नाराजगी प्रकट कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में यादव परिवार बिखर रहा है। आम आदमी पार्टी एक अधिकारी की मनमर्जी के कारण टूट रही है। चुनावों के दौरान दबे हुए नेताओं का गुस्सा बाहर आता है लेकिन इसे केवल मौकापरस्ति, स्वार्थ या विरोधियों की चाल नहीं कहा जा सकता। सख्त अनुशासन का हवाला देकर सरकार की शक्तियों को कुछ खास नेताओं की जायदाद बना देने से शासन पर नेताओं की छवि दिखाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन यह लोकतंत्र व संगठन के नियमों के विपरीत है। एक नेता की काबलियत को पार्टी में बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना व प्रचार करने का प्रभाव पार्टी में लोकतंत्र को भंग करता है। संकट में घिरे सत्तापक्ष व विपक्ष को लोकतंत्र के सिद्धांतों का पालन करने की आवश्यकता है। केवल अनुशासन या मर्जी का शिकंजा कस देने से न सरकारों की छवि सुधरेगी और न ही पार्टियों में बगावत समाप्त होगी।

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