उपचार व कानून व्यवस्था

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Delhi News: मोदी की डिग्री मामले में संजय सिंह को नहीं मिली राहत

उत्तर प्रदेश का एक नाबालिग अपने बीमार पिता को लीवर दान करना चाहता था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से पहले ही उसके पिता की मृत्यु हो गई। दरअसल, यह पहला मामला नहीं, देश में हजारों मामले ऐसे हैं जब लंबी कानूनी प्रक्रिया के कारण मरीजों की जान चली जाती है। इससे पूर्व बॉम्बे हाईकोर्ट के पास भी ऐसा मामला सामने आया था। अदालतों का अपना सिस्टम है, जहां याचिकाओं व मुकदमों की गिनती ज्यादा होने के कारण समय लग जाता है परन्तु बड़ी जिम्मेवारी सरकारों की है। यदि सरकारें ही सिस्टम को सही बना लें, तब ऐसे याचियों को अदालतों में जाने की आवश्यकता ही ना पड़े।

देश में गुर्दे के रोगों से ग्रस्त लाखों रोगी हैं, जिनका गुर्दा बदला जाना होता है। ऐसे मरीजों का अदालती प्रक्रिया से भी कोई संबंध नहीं होता, उन्हें सिविल प्रशासन व स्वास्थ्य विभाग की अनुमति चाहिए होती है। इसके बावजूद कागजी कार्रवाई इतनी लंबी व देरी से होती है कि मरीजों के परिजन कागजों की गठरियों को ही ढो-ढोकर थक जाते हैं। उपचार महंगा होने के साथ-साथ परेशानी भरा होता है। दरअसल, कानूनी प्रक्रिया सरल बनाने की आवश्यकता है। स्वास्थ्य विभाग में बड़े स्तर पर बदलाव होने चाहिए। सरकार को इस दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।

वास्तव में राजनीति में काबलियत से ज्यादा राजनीतिक समीकरण हावी हो चुके है। राजनीतिक स्तर पर स्वास्थ्य मामलों पर ज्यादा गौर नहीं किया जाता। नि:संदेह स्वास्थ्य का मामला संवेदनशील व वैज्ञानिक है। इस तरह के मामलों के समाधान के लिए सरकार राष्टÑीय स्तर पर विशेषज्ञों की कमेटी बनाकर सर्वसम्मति से कोई संस्था बना सकती है। देश के पास स्वास्थ्य वैज्ञानिकों व बुद्धिजीवियों की कमी नहीं। जिस प्रकार तकनीक विकास कर रही है उसी तरह फैसले लेने की रफ्तार भी बढ़ानी चाहिए। फैसलों को लंबे समय तक लटकाने का चलन समाप्त होना चाहिए। विश्व के विकसित देशों ने यदि विकास किया है तब उसका बड़ा कारण समय के अनुसार व रफ्तार के साथ सही निर्णय लेना है। सही वैज्ञानिक व जनहितैषी निर्णय लेने से ठोस ढांचा बनाया जाना चाहिए। उपचार जैसे अहम मुद्दों को सरकारें अपने एजेंडे में प्राथमिकता दें।

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