बिहार में शराबबंदी, फिर भी मौतें

बिहार में बीते सात साल से शराबबंदी है। यह शराबबंदी मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने 5 अप्रैल 2016 से कानून बनाकर लागू की थी। बावजूद इसके जहरीली शराब पीने से हुई मौतों के अनेक मामले सामने आ चुके हैं। ताजा मामला छपरा का है। यहां कथित शराब से 53 लोगों की मौत हो चुकी हैं। मीडिया में ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि थाने में जब्त अवैध स्प्रिट से शराब बनाई गई थी। मसलन जिस पुलिस की जवाबदेही शराब की अवैध बिक्री रोकने की है, वह खुद अवैध शराब बनाने के गोरखधंधे से जुड़ गई है। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से हुई है कि मसरक थाने में रखे अवैध शराब के ड्रमों में से एक ड्रम गायब है। हालांकि पुलिस इसे अफवाह बता रही है। लेकिन धुआं उठा है तो आग के नीचे सच्चाई की चिंगारी दबी होगी ही?

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शराबबंदी के मायने थे कि इससे गरीबों की सेहत सुधरेगी और समृद्धि भी बढ़ेगी। घरेलू हिंसा कम होगी और स्त्रियां व बच्चे कमोबेश सुरक्षित हो जाएंगे। क्योंकि शराब का सबसे ज्यादा अभिशाप इन्हें ही झेलना होता है। नीतीश की इस साहसी कानूनी पहल की पूरे देश में मुक्त कंठ से प्रशंसा हुई और अन्य प्रदेशों में भी शराबबंदी की मांगें उठीं। लेकिन शराब का उत्पादन और बिक्री राजस्व इकट्ठा करने का बड़ा जरिया है, इसलिए नीतीश का अनुकरण अन्य राज्य सरकारों ने नहीं किया। ये राज्य राजस्व के लालच से छुटकारे को तैयार नहीं थे, इसलिए इन्होंने बहाना बनाया कि नागरिकों को धन के अपव्यय और इसके सेवन से उपजने वाली सामाजिक बुराईयों से बचने के लिए सचेत करने की जरूरत है, अत: नशाबंदी के लिए लोगों को जागरूक करने के अभियान चलाए जाएंगे। यानी पहले बुराई पैदा करने के उपाय होंगे और फिर उनसे बचने के नुस्खे सुझाएंगे। गोया, शराब के पहलुओं पर नए सिरे से चिंता की जरूरत है।

बिहार में जब पूर्ण शराबबंदी लागू की गई थी, तब इस कानून को गलत व ज्यादतीपूर्ण ठहराने से संबंधित पटना हाईकोर्ट में जनहित याचिका पटना विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर राय मुरारी ने लगाई थी। तब पटना हाईकोर्ट ने शराबबंदी संबंधी बिहार सरकार के इस कानून को अवैध ठहरा दिया था। इस बाबत सरकार का कहना था कि हाईकोर्ट ने शराबबंदी अधिसूचना को गैर-कानूनी ठहराते समय संविधान के अनुच्छेद 47 पर ध्यान नहीं दिया। जिसमें किसी भी राज्य सरकार को शराब पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार है।

संविधान निर्माताओं ने देश की व्यवस्था को गतिशील बनाए रखने की दृष्टि से संविधान में धारा 47 के अंतर्गत कुछ नीति-निर्देशक नियम सुनिश्चित किए हैं। जिनमें कहा गया है कि राज्य सरकारें चिकित्सा और स्वास्थ्य के नजरिए से शरीर के लिए हानिकारक नशीले पेय पदार्थों और ड्रग्स पर रोक लगा सकती हैं। बिहार में शराबबंदी लागू करने से पहले केरल और गुजरात में शराबबंदी लागू थी। इसके भी पहले तमिलनाडु, मिजोरम, हरियाणा, नागालैंड, मणिपुर, लक्षद्वीप, कर्नाटक तथा कुछ अन्य राज्यों में भी शराबबंदी के प्रयोग किए गए थे, लेकिन बिहार के अलावा न्यायालयों द्वारा शराबबंदी को गैर-कानूनी ठहराया गया हो, ऐसा देखने में नहीं आया था। अलबत्ता राजस्व के भारी नुकसान और अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जाने के कारण प्रदेश सरकारें स्वयं ही शराबबंदी समाप्त करती रही हैं।

इस समय देश में पुरुषों के साथ महिलाओं में भी शराब पीने की लत बढ़ रही है। पंजाब में यह लत सबसे ज्यादा है। निरंतर बढ़ रही इस लत की गिरफ्त में बच्चे व किशोर भी आ रहे हैं। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए ही बिहार विधानसभा के दोनों सदनों में बिहार उत्पाद (संशोधन) विधेयक-2016, ध्वनिमत से पारित हो गया था। यही नहीं, दोनों सदनों के सदस्यों ने संकल्प लिया था कि ‘वे न शराब पियेंगे और न ही लोगों को इसे पीने के लिए अभिप्रेरित करेंगे।’ इस विधेयक के पहले चरण में ग्रामीण क्षेत्रों में देसी शराब पर और फिर दूसरे चरण में शहरी इलाकों में विदेशी मदिरा को पूरी तरह प्रतिबंधित करने का प्रावधान कर दिया गया था।

इस पर रोक के बाद यदि बिहार में कहीं भी मिलावटी या शराब से किसी की मौत होती है तो इसे बनाने और बेचने वाले को मृत्युदंड की सजा का प्रावधान किया गया था, लेकिन यहां किसी को फांसी की सजा हुई हो, इसकी जानकारी नहीं है। नशे का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू अब यह भी देखने में आ रहा है कि आज आधुनिकता की चकाचौंध में मध्य व उच्च वर्ग की महिलाएं भी शराब बड़ी संख्या में पीने लगी हैं, जबकि शराब के चलते सबसे ज्यादा संकट का सामना महिलाओं और बच्चों को ही करना होता है।

शराबबंदी को लेकर अकसर यह प्रश्न खड़ा किया जाता है कि इससे होने वाले राजस्व की भरपाई कैसे होगी और शराब तस्करी को कैसे रोकेंगे ? ये चुनौतियां अपनी जगह वाजिब हो सकती हैं, लेकिन शराब के दुष्प्रभावों पर जो अध्ययन किए गए हैं, उनसे पता चलता है कि उससे कहीं ज्यादा खर्च, इससे उपजने वाली बीमारियों और नशा-मुक्ति अभियानों पर हो जाता है। इसके अलावा पारिवारिक और सामाजिक समस्याएं भी नए-नए रूपों में सुरसामुख बनी रहती हैं। घरेलू हिंसा से लेकर कई अपराधों और जानलेवा सड़क दुर्घटनाओं की वजह भी शराब बनती है। यही कारण है कि शराब के विरुद्ध खासकर ग्रामीण परिवेश की महिलाएं मुखर आंदोलन चलाती, समाचार माध्यमों में दिखाई देती हैं।

इसीलिए महात्मा गांधी ने शराब के सेवन को एक बड़ी सामाजिक बुराई माना था। उन्होंने स्वतंत्र भारत में संपूर्ण शराबबंदी लागू करने की पैरवी की थी। ‘यंग इंडिया’ में गांधी ने लिखा था, ‘अगर मैं केवल एक घंटे के लिए भारत का सर्वशक्तिमान शासक बन जाऊं तो पहला काम यह करूंगा कि शराब की सभी दुकानें, बिना कोई मुआवजा दिए तुरंत बंद करा दूंगा।’ बावजूद गांधी के इस देश में सभी राजनीतिक दल चुनाव में शराब बांटकर मतदाता को लुभाने का काम करते हैं। यह बुराई ग्राम पंचायतों तक पहुंच गई है। ऐसा दिशाहीन नेतृत्व देश का भविष्य बनाने वाली पीढ़ियों का ही भविष्य चौपट करने का काम कर रहा है।

सर्वोच्च न्यायालय ने शराब पर अंकुश लगाने की दृष्टि से राष्ट्रीय राजमार्गों पर शराब की दुकानें खोलने पर रोक लगा दी थी। किंतु सभी दलों के राजनीतिक नेतृत्व ने चतुराई बरतते हुए नगर और महानगरों से जो नए बायपास बने हैं, उन्हें राष्ट्रीय राजमार्ग घोषित करने की अधिसूचना जारी कर दी और पुराने राष्ट्रीय राजमार्गों का इस श्रेणी से विलोपीकरण कर दिया। साफ है, शराब की नीतियां शराब कारोबारियों के हित को दृष्टिगत रखते हुए बनाई जा रही हैं। जाहिर है, शराब माफिया सरकार पर भारी है और राज्य सरकारें शराब से मिलने वाले राजस्व का विकल्प तलाशने को तैयार नहीं हैं।                                                                                 -प्रमोद भार्गव वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार

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