बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जातिगत आधार पर जनगणना और पेगासस जासूसी मामले की जांच कराने की मांग उठाई है। नीतीश और उनकी पार्टी जेडीयू एक के बाद कई ऐसे मुद्दों को हवा दे रहे हैं, जो भाजपा और मोदी सरकार की असहज करते हैं। नीतीश कुमार के बदले सुर को लेकर भाजपा भले ही आंख दिखा रही है, लेकिन बिहार में भाजपा और जेडीयू भले ही मिलकर सरकार चला रही हों, लेकिन दोनों दलों के बीच शह-मात का खेल चल रहा है।
नीतीश कुमार की दोनों ही डिमांड से भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं, क्योंकि वह एनडीए के सहयोगी दल के पहले ऐसे नेता हैं जिन्होंने पेगासस मामले में जांच और जातिगत जनगणना कराने की मांग की है। नीतीश जातीय जनगणना के नाम पर तेजस्वी यादव से मुलाकात कर लालू यादव को नए सिरे से दोस्ती का आफर भी दे रहे हैं और भाजपा को चौतरफा घेरने की कोशिश कर रहे हैं। एक तो भाजपा के पास अकेले इतने नंबर नहीं है कि कांग्रेस या आरजेडी के कुछ विधायकों को तोड़ कर सरकार बना सके और न ही विरोधी खेमे में भाजपा को कोई ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट या हिमंत बिस्वा सरमा ही नजर आ रहे हैं।
भाजपा ने ये जरूर किया है कि अपने ही नेता सुशील मोदी को पैदल कर नीतीश कुमार को थोड़ा कमजोर किया, अति पिछड़े वर्ग से दो-दो डिप्टी सीएम पहरेदारी में बिठा दिया और मुस्लिम वोट बैंक को थोड़ा बहुत मैसेज देने के लिए भागलपुर से दिल्ली जमे हुए सैयद शाहनवाज हुसैन को पटना भेज कर नीतीश कुमार को शह भर दिया है, मात दे पाना तो अभी मुमकिन है नहीं। नीतीश कुमार ने बिहार में अति पिछड़े वर्ग की राजनीति से अपने जनाधार में थोड़े विस्तार की कोशिश की है, लेकिन भाजपा की नजर वहां भी टिकी हुई है।
मोदी सरकार ने नीट परीक्षा के आल इंडिया कोटे में ओबीसी आरक्षण देने की घोषणा कर कदम तो बढ़ाया है, लेकिन जातीय जनगणना के लिए भी राजी हो जाएगी, अभी नहीं लगता। हालांकि, भाजपा भी पहले जातीय जनगणना की पक्षधर रही है। भाजपा पश्चिम बंगाल चुनाव में हार के बाद समीक्षा से इस नतीजे पर पहुंची है कि उसकी हार की वजह मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण रहा। मतलब, हिंदू वोट बंट गया और ऐसा जहां कहीं भी होगा भाजपा को हार का मुंह देखना ही पड़ेगा। हिंदुओं को एकजुट रखने के लिए संघ एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान जैसे अभियान भी चलाने की कोशिश कर चुका है लेकिन वो दिखावे से आगे कभी बढ़ ही नहीं पाता।
जातीय जनगणना की मांग जोर पकड़ रही है और भाजपा को छोड़ कर धीरे धीरे जातीय राजनीति करने वाले सारे राजनीतिक दल साथ खड़े हो सकते हैं। मायावती को इससे फर्क तो नहीं पड़ता क्योंकि उनके दलित वोट बैंक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की गणना तो होती ही है। हां, अगर उनकी भी अखिलेश यादव के ओबीसी वोट बैंक पर निगाह हो तो सपोर्ट कर सकती हैं, लेकिन जब अखिलेश यादव खुद ये डिमांड कर रहे होंगे तो मायावती के साथ कोई ओबीसी क्यों जाना चाहेगा।
ये तो नीतीश कुमार को भी मालूम होगा ही कि केंद्र सरकार जातीय जनगणना को लेकर इतना जल्दी तैयार नहीं हो सकती क्योंकि जातीय जनगणना कराने के बाद आरक्षण को लेकर समस्याएं बढ़ जाएंगी। अभी तो उच्चतम न्यायालय के 50 फीसदी आरक्षण की सीमा तय कर देने से हिस्सेदारी के बाद जो कुछ बचता है वो ओबीसी को मिल जाता रहा है, लेकिन मुसीबत तब बढ़ेगी जब ओबीसी की आबादी अभी की अनुमानित संख्या से बहुत ज्यादा या फिर कम हो जाए ऐसे में जातीय जनगणना का मुद्दा नीतीश कुमार के लिए केवल ‘कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना’ लग रहा है!