सरकारी क्षेत्र के बैंक बेहतर विकल्प

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वर्ष 1969 की तरह आज भी सरकारी क्षेत्र के बैंकों की अत्यावश्यकता है और भारतीय रिजर्व बैंक ने वास्तव में यह संदेश दिया है। भारतीय रिजर्व बैंक की यह टिप्पणी कि बैंकों के निजीकरण से अधिक नुकसान हो सकता है, एक तरह से चेतावनी है। स्वतंत्र रिपोर्टों से पता चलता है कि निजी क्षेत्र के सात बैंकों के कार्यकरण में अनेक कमजोरियां हैं। दूसरा सबसे बड़ा एक और बैंक अनेक उतार-चढावों से गुजरा है और इसके शीर्ष अधिकारियों के विरुद्ध जांच चली। एचडीएफसी बैंक पर अनुचित पद्धतियां अपनाने के लिए जुमार्ना लगाया गया।

वर्ष 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1969 से लेकर 36 निजी बैंकों के कुप्रबंधन के कारण उनका कामकाज रोका गया जिनमें से 10 का कामकाज पिछले 20 वर्षों में रोका गया। भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट वर्ष 2008 में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी द्वारा व्यक्त विचारों को परिलक्षित करती है जो उन्होंने लेहमन ब्रदर्स के धराशायी होने के बाद व्यक्त किए थे। उस समय उन्होंने कहा था कि हमारा देश वैश्विक वित्तीय संकट का सामना इसलिए कर पाया हमारे यहां सुदृढ बैंक थे। भारतीय रिजर्व बैंक ने सही कहा है कि इस मामले में बैंकों का दोष नहीं है अपितु बैंकों से बाहर लिए गए निर्णयों के कारण यह संकट जैसी स्थिति पैदा हुई है।

हमारे देश के लोग अभी बैंकों के निजीकरण को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। बैंक कर्मचारियों ने पिछले एक वर्ष में कई बार हड़ताल की है। हाल ही में जीवन बीमा निगम की शेयरधारिता को बेचने से उसके शेयरों में गिरावट आयी है। भारतीय रिजर्व बैंक का दस्तावेज नेशनल काउंसिल आॅफ एप्लाई इकोनोमिक रिसर्च के महानिदेशक पूनम गुप्ता और नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पाणिग्रया के विचारों के विपरीत है जिन्होंने स्टेट बैंक आॅफ इंडिया को छोड़कर सभी बैंकों के निजीकरण की सिफारिश की थी।

भारतीय रिजर्व बैंक के बुलेटिन में कहा गया है कि सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने विभिन्न क्षेत्रों में स्थिरीकरण और विकास में उल्लेखनीय सेवा दी है। बाजार का उन पर विश्वास है। वे वित्तीय समावेशन की नीति अपनाते हैं। उनमें श्रम लागत कुशलता है और उन्होंने कोरोना महामारी के दौरान भी बेहतर प्रबंधन किया। भारतीय मजदूर संघ से जुड़े बैंक कर्मचारी संघ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। वे समय-समय पर बैंकों के निजीकरण के विरुद्ध हड़ताल भी करते हैं। 1980 में 20 बैंकों का पुन: राष्ट्रीयकरण किया गया। यह माना जाता था कि बैंकों पर बड़े व्यावसायिक घरानों का नियंत्रण था किंतु राष्ट्रीयकरण से उन पर सामाजिक नियंत्रण हुआ। आम आदमी, निर्धनतम व्यक्ति, छात्र और जरूरतमंद उद्यमी को बैंकों से ऋण मिलने लगा जबकि निजी बैंक ऐसा नहीं करते थे। इससे वर्ष 1971 के चुनावों में कांग्रेस को लाभ मिला। लोगों ने इसका स्वागत किया किंतु धीरे-धीरे बैंकिंग व्यवस्था में खामियां आने लगी क्योंकि राजनेता बैंकों के निर्णयों को नियंत्रित करने लगे थे। प्रधानमंत्री वीपी सिंह की सरकार द्वारा पहली बार ऋण माफी की योजना से राजकोष को 10 हजार करोड़ से अधिक की लागत भुगतनी पड़ी। इसके बाद संप्रग सरकार ने 2008 में किसानों का 60 हजार करोड़ रूपए का ऋण माफ किया।

वर्ष 2004-2014 के दौरान संप्रग सरकार ने 2.20 लाख करोड़ रूपए के ऋण माफ किए। उसके बाद के वर्षों में 19.2 लाख करोड़ के ऋण बट्टे खाते में डाले गए। बैंकों का कहना है कि ये ऋण वसूल नहीं किए जा सकते हैं इसलिए उन्हें उनकी बैलेंस शीट से हटा दिया गया। ये बड़ी समस्याएं हैं। सरकारी क्षेत्र के बैंकों की गैर-निष्पादनकारी आस्तियां या अशोध्य ऋण बढ़ते जा रहे हैं जो मार्च 2018 में 8.96 ट्रिलियन रूपए थी तथा जो कुल ऋण का 14.6 प्रतिशत था। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और बैकिंग प्रणाली के कठोर विनियमनों के बावजूद निजी क्षेत्र के बैंक आज भी विफल होते जा रहे हैं।

सरकारी क्षेत्र के बैंकों की कमजोर बैलेंस शीट और समुचित संसाधन उपयोग न होने के बावजूद वे अधिक कुशल हैं और उन्होंने कोरोना महामारी के दौरान देश की बेहतर सेवा की है। यदि सरकारी क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण किया गया तो एक बड़ी सामाजिक संपत्ति लोगों और सरकार की पहुंच से दूर हो जाएगी। 1960 के दशक में सरकार को इसी तरह की समस्या का सामना करना पड़ा था और यदि अब भी उन्हें ऐसे ही लोगों को बेचा गया जिनमें से अधिकतर चूककर्ता हैं, तो बैंकों को बहुत नुकसान उठाना पड़ेगा। इसके अलवा इससे ऋण ब्याज दरों में अत्यधिक उतार-चढ़ाव आ सकता है जिससे सरकार के अधिकतर कार्यक्रम प्रभावित हो सकते हैं और सामाजिक असंतुलन पैदा हो सकता है। यह सरकारी क्षेत्र के बैंकों के लिए अच्छा नहीं है क्योंकि इससे उनके शेयरों के मूल्य प्रभावित होंगे। इससे ब्याज दर, विनियामक, मूल्य और बुक वैल्यू अनुपात के जोखिम पैदा होंगे। बेहतर सामाजिक प्रतिफल के लिए सरकारी क्षेत्र आदर्श व्यवस्था है और निजीकरण इस समस्या का समाधान नहीं है।

-शिवाजी सरकार

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