भारतीय आर्यों के रक्ष पर सवार इतिहास

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इतिहास तथ्य और घटना के सत्य पर आधारित होता है। इसलिए इसकी साहित्य की तरह व्याख्या संभव, नहीं है। विचारधारा के चश्मे से इतिहास को देखना उसके मूल से खिलवाड़ है। गोया, अब उत्तर-प्रदेश के बागपत जिले के सिनौली गांव में भारतीय पुरातत्व विभाग ने जो उत्खनन किया है और इस उत्खनन में जो रामायण और महाभारत में वर्णित रथों जैसे तीन रथ निकले हैं, इसके मूल से यदि पूर्वग्रही मानसिकता से छेड़छाड़ की गई तो यह इतिहास और भारतीय धरोहर की गरिमा को झुठलाना होगा।

क्योंकि ये नए तथ्य अंग्रेजों और भारतीय वामपंथियों द्वारा लिखी उस अवधारणा को सर्वथा नकार रहे हैं, जिसमें बार-बार दावा किया जाता रहा है कि कथित आर्य घोड़ों से जूते रथों पर सवार होकर पश्चिम से भारत आए थे। इन आर्यों ने भारत पर आक्रमण कर यहां की पुरातन सभ्यता और संस्कृति को बुरी तरह रौंदा और भरतखंड के मालिक बन बैठे।

किंतु अब सिनौली के मिट्टी के नीचे दबे जो प्रमाण सामने आए है, उनसे निश्चित हुआ है कि आर्यों के आक्रमण की कथित अवधारणा से भी करीब तीन हजार ईसा पूर्व हमारे पूर्वज रथ बना चुके थे। उस समय के राज-परिवार के लोग इनका आवागमन के लिए उपयोग करते थे। इस उत्खनन से हमारी वे प्राचीन मान्यताएं पुष्ट हो रही हैं, जो ऋृग्वेद, उपनिषद, रामायण और महाभारत में दर्ज होने के बावजूद नकारी जाती रही हैं। गोया, अब अंग्रेजों के लिखे इतिहास को बदलने का समय आ गया है।

एससआई का जो दल डॉ संजय मंजुल के नेतृत्व में खुदाई में लगा है, उनका दावा है कि इन साक्ष्यों से महाभारत काल निर्धारण और हड़प्पा-युग में घोड़ों के अस्तित्व को स्वीकारने की उम्मीद बढ़ गई है। इस उत्खनन से पहले तक मेसोपोटामिया, जॉर्जिया और ग्रीक सभ्यता में रथ के प्रमाण मिले हैं, लेकिन अब हम कह सकते हैं कि इन सभ्ताओं की तरह भारत के लोग भी रथों का निर्माण व प्रयोग करते थे। दरअसल अंग्रेजों ने अभी तक यह धारणा गढ़ी हुई है कि आर्यों ने 1500-2000 वर्ष ईसा पूर्व भारत पर हमला किया। वे रथों से आए और यहां की सभ्यता को नेस्तनाबूद करते हुए नई सभ्यता की नींव रखी।

इनका दावा था कि इस समय तक भारत में बैलगाड़ी तो थी, किंतु घोड़ा-गाड़ी नहीं थी। अलबत्ता अब इस खुदाई में मिले प्रमाणों ने यह सिद्ध कर दिया है कि भारत में ईसा पूर्व 5000 साल पहले से ही रथ उपयोग में लाए जाते रहे थे। इस खोज के पूर्व पुरातत्वविद् बी लाल पुरातत्वीय-अनुवांशिक की आधार पर यह स्पष्ट कर चुके हैं कि हमारे डीएनए के गुण-सूत्रों में पिछले 12 हजार वर्ष से कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। दिसंबर 2007 में भी सिनौली में एक साथ 160 नरकंकाल मिले थे।

इनकी कॉर्बन डेटिंग से यह खुलासा हुआ था कि ये चार से पांच हजार वर्ष प्राचीन हैं। ऐसे में रथ के साथ कंकाल और ताबूतों का मिलना, अंग्रेजों की आर्य संबंधी अवधारणा को पलटने के ठोस प्रमाण हैं। गोया, अब भारतीय इतिहास लेखन में जो भूलें बरतीं गई हैं, उन्हें सुधारा जाना आवश्यक हो गया है।

सिनौली ऐसा महत्वपूर्ण स्थल है, जहां शुरू से ही घर की बुनियाद कुआं या अन्य कोई गड्ढा खोदने पर शिव, महिशासुर-मर्दिनी, शाकुंभरी और चामुंडा देवी की मिट्टी की मूर्तियां मिलती रही हैं। इसीलिए इस पूरे क्षेत्र को टेराकोटा क्षेत्र का दर्जा दिया हुआ है। इनके अलावा यहां सिंधु घाटी की सभ्यता से मेल खाते मिट्टी के बर्तन, कंकाल, आभूषण, मूठ वाली तलवार, तांबे की कीलें और कंघियां मिले हैं। यहां जो ताबूत मिले हैं, उन ताबूतों के ऊपर तांबे से बने पशुपतिनाथ के मुहर जैसे चिन्ह भी मिले हैं, जो भगवान शिव की मान्यता के प्रतीक हैं।

कुरु जनपद की राजधानी हस्तिनापुर गंगा के किनारे थी और महाभारत का युद्धस्थल कुरुक्षेत्र यमुना नदी के किनारे था। कुरूक्षेत्र के निकट ही करनाल, पानीपत और सोनीपत हैं। इनके निकट ही सिनौली का वह क्षेत्र है, जो जहां उत्खनन में रथ मिले हैं। इससे यह उम्मीद है कि मिले रथ व कंकाल महाभारतकालीन हो सकते हैं।

बागपत का प्राचीन नाम वयाग्रप्रस्थ, सोनीपत का स्वर्णप्रस्थ, पानीपत का पर्णप्रस्थ और बरनावा का वाणार्वृत है। पांच में से ये ही वे चार गांव हैं, जो पांडवों ने दुर्योधन से मांगे थे, लेकिन दुर्योधन ने सुई की नोक के बराबर भी भूमि पांण्डवों को देने से मना कर दिया था। अंतत: इसकी परिणति महाभारत युद्ध के रूप में सामने आई।

ऋृग्वेद के पहले मंडल के दूसरे अध्याय में स्पष्ट उल्लेख है कि अग्नि और जल के वेग से युक्त किया हुआ रथ बहुत दूर स्थित स्थानों पर भी तुरंत पहुंचता है। यानी वैदिक काल में ऐसे भी रथ थे, जो घोड़ों के अलावा अग्नि और जल की ऊर्जा से संचालित होते थे। इसे ही अश्व-शक्ति कहा गया, जो इंजन के आविष्कार के बाद होर्स पावर के नाम से जानी गई।

इसी आध्याय के एक अन्य मंत्र में कहा गया है कि जैसे मनुष्य पहले कुंए को खोदकर उसके जल के उपयोग से संतुष्ट होता है, उसी तरह विद्वान लोग कलायंत्रों में अग्नि को जोड़कर उसकी सहायता से यंत्रों में जल को प्रवेश कराकर, उनको गतिमान कर अनेक कार्यों को सिद्ध करते हैं। वेदों में वर्णित इस वैज्ञानिकता को जब अंग्रेज मैकाले और जर्मन मैक्समूलर ने समझा तो वे हतप्रभ रह गए।

वे जान गए कि भारत में यदि संस्कृत की महत्ता बनी रहती है और इसका प्रचार व विस्तार वैश्विक स्तर पर होता है तो ईसाई, धर्म और बाइबिल को खतरा उत्पन्न हो सकता है ? यूरोपियन ईसाई भी श्रेष्ठ धर्म के रूप में सनातन हिंदू धर्म और श्रेष्ठ भाषा के रूप में संस्कृत को अपना सकते हैं?

– प्रमोद भार्गव

 

 

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