GST Collection: बढ़ता जीएसटी संग्रह और सुशासन

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GST Collection: वित्त बगैर ऊर्जा नहीं और ऊर्जा बगैर कुछ नहीं यह स्लोगन दशकों पहले कहीं पढ़ने को मिला था जो आज के दौर में कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है। सुशासन तभी संभव कहा जाएगा, जब जनहित की समस्याएं निर्मूल हों। समावेशी विकास की राह हो और एवंऔर खुशहाली का बड़ा वातावरण हो तथा यह तब हो सकता है जब सुशासन हो व सुशासन तभी होगा जब समुचित वित्त होगा। इसी धारा में एक व्यवस्था अप्रत्यक्ष कर जीएसटी है जो आर्थिक इंजन के तौर पर देश में 1 जुलाई, 2017 को परोसी गई, जिसकी छ: साल की यात्रा हो चुकी है। सुशासन की दृष्टि से जीएसटी को देखा जाए तो यह बल इकट्ठा करने का एक आर्थिक परिवर्तन था मगर सफलता कितनी मिली यह पड़ताल से जरूर पता चलेगा। GST Collection

हालांकि 24 जुलाई 1991 को जब उदारीकरण एक बड़ा आर्थिक नीति और परिवर्तन का स्वरूप लेकर प्रकट हुआ था तब उम्मीदें भी बहुत थी और कहना गलत न होगा कि 3 दशक पुरानी इस व्यवस्था ने निराश नहीं किया बल्कि इसी दौर के बीच में सुशासन को 1992 में सांस लेने का अवसर मिला जिसकी धड़कन की आवाज कमोबेश आज सुनी और समझी जा सकती है। देश में कई सारे अप्रत्यक्ष करों को समाहित कर आज से ठीक 6 साल पहले 1 जुलाई 2017 को एक नया आर्थिक कानून वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू हुआ था। इस एकल कर व्यवस्था से राज्यों को होने वाले राजस्व कर की भरपाई हेतु पांच साल तक मुआवजा देने का प्रावधान भी इसमें शामिल था जो जून 2022 में पूरा भी हो गया। इस हेतु एक कोष बनाया गया जिसका संग्रह 15 फीसद तक के सेस से होता है।

नियमसंगतता की दृष्टि से जीएसटी के उक्त संदर्भ सुशासन के समग्रता को परिभाषित करते हैं मगर वक्त के साथ व्याप्त कठिनाईयों ने इस पर सवाल भी खड़ा किये। गौरतलब है कि जीएसटी लागू होने से पहले ही केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच आपस में इस बात पर सहमति का प्रयास किया गया था कि इसके माध्यम से प्राप्त राजस्व में केन्द्र और राज्यों के बीच राजस्व का बंटवारा किस तरह किया जाएगा। ध्यानतव्य हो कि पहले इस तरह के राजस्व का वितरण वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर किया जाता था। GST Collection

जीएसटी का एक महत्वपूर्ण संदर्भ यह रहा है कि इस प्रणाली के लागू होने से कई राज्य इस आशंका में शामिल रहे हैं कि इनकी आमदनी इससे कम हो सकती है और यह आशंका सही भी है। हालांकि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए केन्द्र ने राज्यों को यह भरोसा दिलाया था कि साल 2022 तक उनके नुकसान की भरपाई की जाएगी। मगर पड़ताल यह बताती है कि बकाया निपटाने के मामले में केन्द्र सरकार समय के साथ पूरी तरह खरी नहीं उतरी और अब मुआवजे का मामला भी एक साल से खत्म है। इसमें कोई शक नहीं कि राज्य वित्तीय संकट से कमोबेश जूझ तो रहे हैं।

पड़ताल यह बताती है कि वित्तीय सम्बंध के मामले में संघ और राज्य के बीच समय-समय पर कठिनाइयां आती रही हैं। सहकारी संघवाद के अनुकूल ढ़ांचे की जब भी बात होती है तो यह भरोसा बढ़ाने का प्रयास होता है कि समरसता का विकास हो। आरबीआई के पूर्व गर्वनर डी0 सुब्बाराव ने कहा था कि जिस प्रकार देश का आर्थिक केन्द्र राज्यों की ओर स्थानांतरित हो रहा है उसे देखते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में भारत का आर्थिक विकास सहकारी संघवाद पर टिका देखा जा सकता है। Good Governance

गौरतलब है कि संघवाद अंग्रेजी शब्द फेडरेलिज्म का हिन्दी अनुवाद है और इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा से हुई है जिसका अर्थ समझौता या अनुबंध है। जीएसटी संघ और राज्य के बीच एक ऐसा अनुबंध है जिसे आर्थिक रूप से सहकारी संघवाद कहा जा सकता है मगर जब अनुबंध पूरे न पड़े तो विवाद का होना लाजिमी है और सुशासन को यहीं पर ठेस पहुंचना भी तय है। जुलाई 2017 में पहली बार जब जीएसटी आया तब उस माह का राजस्व संग्रह 95 हजार करोड़ के आसपास था। धीरे-धीरे गिरावट के साथ यह 80 हजार करोड़ पर भी पहुंचा था और यह उतार-चढ़ाव चलता रहा।

कोविड-19 महामारी के चलते अप्रैल 2020 में इसका संग्रह 32 हजार करोड़ तक आकर सिमट गया जबकि दूसरी लहर के बीच अप्रैल 2021 में यह आंकड़ा एक लाख 41 हजार करोड़ का था जो उस कालखण्ड में जीएसटी लागू होने से और संग्रह में सर्वाधिक था। अब तो हाल यह है कि जीएसटी हर महीने डेढ़ लाख करोड़ के आंकड़े को तो पार करती है और यह लगभग 2 लाख करोड़ के आसपास छलांग लगाने की ओर है। जाहिर है अप्रत्यक्ष कर के साथ कई तकनीकी समस्याएं हो सकती है पर जीएसटी संग्रह का लगातार बढ़ना और करदाताओं की संख्या में लगातार वृद्धि इसके सुशासनिक पक्ष को मजबूती की ओर ही इंगित करता है। Good Governance

जीएसटी के इन 6 साल से अधिक के कालखण्ड में जीएसटी काउंसिल की अब तक 50 बैठकें और हजार से अधिक संशोधन हो चुके हैं। कुछ पुराने संदर्भ को पीछे छोड़ा जाता है तो कुछ नये को आगे जोड़ने की परम्परा अभी भी जारी है। गौरतलब है कि संविधान स्वयं में एक सुशासन की कुंजी है जहां सभी के अधिकार और स्वायतता को पहचान मिलती है और यहीं से सभी का कद-काठी भी बड़ा होता है। संघ और राज्य के वित्तीय मामलों में संवैधानिक प्रावधान को भी संविधान में देखा जा सकता है। अनुच्छेद 275 संसद को इस बात का अधिकार प्रदान करता है कि वह ऐसे राज्यों को उपयुक्त अनुदान देने का अनुबंध कर सकती है जिन्हें संसद की दृष्टि में सहायता की आवश्यकता है।

अनुच्छेद 286, 287, 288 और 289 में केन्द्र तथा राज्य सरकारों को एक दूसरे द्वारा कुछ वस्तुओं पर कर लगाने से मना किया गया है। अनुच्छेद 292 व 293 क्रमश: संघ और राज्य सरकारों से ऋण लेने का प्रावधान भी करते हैं। गौरतलब है कि संघ और राज्य के बीच शक्तियों का बंटवारा है संविधान की 7वीं अनुसूची में संघ, राज्य और समवर्ती सूची के अंतर्गत इसे बाकायदा देखा जा सकता है। जीएसटी वन नेशन, वन टैक्स की थ्योरी पर आधारित है जो एकल अप्रत्यक्ष कर संग्रह व्यवस्था है। जिसमें संघ और राज्य आधी-आधी हिस्सेदारी रखते हैं।

80वें संविधान संशोधन अधिनियम 2000 और 88वें संविधान संशोधन अधिनियम 2003 द्वारा केन्द्र-राज्य के बीच कर राजस्व बंटवारे की योजना पर व्यापक परिवर्तन दशकों पहले किया गया था जिसमें अनुच्छेद 268डी जोड़ा गया जो सेवा कर से सम्बंधित था। बाद में 101वें संविधान संशोधन द्वारा नये अनुच्छेद 246ए, 269ए और 279ए को शामिल किया गया तथा अनुच्छेद 268 को समाप्त कर दिया गया। गौरतलब है राज्य व्यापार के मामले में कर की वसूली अनुच्छेद 269ए के तहत केन्द्र सरकार द्वारा की जाती है जबकि बाद में इसे राज्यों को बांट दिया जाता है।

जीएसटी केन्द्र और राज्य के बीच झगड़े की एक बड़ी वजह उसका एकाधिकार होना भी रहा है। क्षतिपूर्ति न होने के मामले में तो राज्य केन्द्र के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक जाने की बात कह चुके हैं। काफी हद तक इस जीएसटी को महंगाई का कारण भी राज्य मानते रहे हैं। सवाल यह भी है कि वन नेशन, वन टैक्स वाला जीएसटी जब मुआवजे के बावजूद राज्यों की आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं कर पाया तो अब क्या हाल होगा यह समझने का विषय है। दो टूक यह भी है कि सुशासन, शान्ति का पर्याय है तो जीएसटी वित्त का। यदि वित्त का संदर्भ उचित होगा तो शान्ति समुचित होगी साथ ही संघ और राज्य संतुलित भी रहेंगे तथा सुशासन का कद तुलनात्मक बढ़ा रहेगा।

                                                 डॉ. सुशील कुमार सिंह, वरिष्ठ स्तंभकार एवं प्रशासनिक चिंतक
(यह लेखक के अपने विचार हैं)

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