दादा लख्मीचंद की विरासत को आगे बढ़ा रहे विष्णु दत्त शर्मा

Vishnu-Dutt-Sharma

एक वक्त सांग का नाम सुनते ही खेतों की पगडंडियों पर लग जाती थी बच्चे, युवा और बुजुर्गों की कतार

  • शहरीकरण से विलुप्त होती जा रही सांग कला

  • एक उम्र के बाद लोगों को याद आ रही अपनी यह संस्कृति

सच कहूँ ब्यूरो गुरुग्राम। 100 साल पहले हरियाणा में पंडित लख्मीचंद ने जिन रागनियों के माध्यम से ना केवल समाज को कई तरह के संदेश दिए, बल्कि आने वाले समय के बारे में भी इन रागनियों में बहुत कुछ कहा गया। उनकी रागनियों में दिए गए संदेशों के मुताबिक आज बहुत कुछ घटित हो भी रहा है। अनपढ़ होते हुए पंडित लख्मीचंद ने लोक कला सांग को जन-जन में लोकप्रिय बनाया। आज उनकी इस कला को उनकी तीसरी पीढ़ी में विरासत के रूप में संभाले हुए उनके पौत्र विष्णु दत्त शर्मा। यहां बस अड्डे के सामने गौशाला में चल रहे सांग उत्सव के दौरान संवाददाता संजय कुमार मेहरा ने उनसे सांग के इतिहास और वर्तमान पर बातें की।

पेश है उनसे बातचीत के अंश:

सवाल: आपकी सांग सीखने में रुचि कैसे हुई?
जवाब: मैं दादा लख्मीचंद की तीसरी पीढ़ी से हूँ। मेरे दादा लख्मीचंद ने वर्ष 1944 तक सांग किया। फिर 15 साल तक उनके शिष्ट पंडित सुल्तान सिंह ने और वर्ष 2008 तक मेरे पिता पंडित तुलेराम ने सांग किया। 2009 से अब तक मैं सांग कर रहा हूँ। हमें सांग कला विरासत में मिली है। सांग संस्कृति को बचाना ही मेरा उद्देश्य है।
सवाल: क्या आपकी आगे की पीढ़ी की भी सांग में रुचि है?
जवाब: हाँ, बिल्कुल। मेरा बड़ा लड़का चेतन शर्मा भी सांग कर लेता है। वैसे वह रोहतक में फिल्म एंड टेलिविजन संस्थान में एक्टिंग का कोर्स भी कर रहा है। हमारा प्रयास यही है कि चाहे आगे की पीढ़ियां किसी भी क्षेत्र में जाएं, लेकिन सांग के गुण-सूत्र उनमें होने चाहिए।
सवाल: दादा लख्मीचंद की कही कोई विशेष बात, जो आज सार्थक हुई हो?
जवाब: दादा लख्मीचंद ने 100 साल पहले एक महल का वर्णन अपनी रागनी में किया था। बताया था कि एक बटन दबेगा और रोशनी फैल जाएगी। तब लाइट नहीं थी। आज के समय को कोई सोच भी नहीं सकता था। तब उन्होंने यह रागनी बनाई।
सवाल: सांग में आज भी महिला का किरदार पुरुष निभा रहे हैं, कोई विशेष कारण है क्या?
जवाब: जी हाँ, आज के समय में सिर्फ सांग ही बचा है, जहां महिलाओं का किरदार पुरुष निभाते हैं। यह सांग कला की विशेषता है। सांग के प्रति रुचि बढ़ाने को जरूरी नहीं कि उसमें गलैमर हो, सांग अपने आप में ही गलैमर है। पुराने समय के लोग आज भी सांग के मुरीद हैं। वैसे लोग राय भी देते हैं कि महिलाओं को मंच पर लाया जाए, लेकिन सांग कला इसकी इजाजत नहीं देती।
सवाल: आज के समय की रागनियों में फूहड़ता परोसी जा रही है, क्या कहना चाहेंगे?
जवाब: यह बिल्कुल सच है कि आज के समय रागनियों का स्वरूप बदल गया है। डबल मीनिंग की रागनियांं गाई जा रही हैं। यह हमारी भावी पीढ़ी को गलत रास्ते पर ले जा रहा है। हालांकि इसमें सुधार की गुंजाइश है।
सवाल: वेस्टर्न कल्चर में पीढ़ी ज्यादा जा रही है, उसे सांग की तरफ कैसे लाएंगे?
जवाब: वेस्टर्न कल्चर की तरफ युवा पीढ़ी आकर्षित हो रही है। जैसे ही उनमें मैच्योरिटी आती है तो उन्हें अपनी कल्चर याद आती है। वे दावे के साथ कह सकते हैं कि ग्रामीण अंचल में एक उम्र के बाद लोग सांग, पौराणिक रागनियों को मनोरंजन का सहारा बना रहे हैं।
सवाल: पौराणिक कलाकारों का नाम विलुप्त तो नहीं हो रहा?
जवाब: मैं इसे विलुप्त नहीं कहूंगा। पुराने कलाकारों की उपेक्षा कहूंगा। देश की आजादी में बलिदान देने वालों को याद किया जाता है। उस समय के कलाकारों ने भी देश में अपनी रागनियों, लोक गीतों के माध्यम से जागृति पैदा की थी। उनको भी उचित सम्मान मिलना चाहिए।

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