अधिकारों को लेकर सड़कों पर उतरीं अफगानी महिलाएं

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अमेरिका, जापान व भारत जैसे महिला सशक्तिकरण प्रभाव वाले देशों से सीख लेकर अफगानी महिलाओं ने भी बंदिशों की बेड़ियों को तोड़ने का निर्णय लिया है। अफगानिस्तान दशकों तक ‘तालिबानी आतंक’ से ग्रस्त रहा था। जब उनसे आजादी मिली तो महिलाएं दूसरी आतंरिक मुसीबतों से घिर गईं। आतंकवाद के अलावा अफगानी महिलाएं रुढ़िवादी और पुरूष प्रभुत्व की आड़ में होने वाली घरेलू हिंसा का भी सामना कर रही हैं। पर, इस समस्या से निजात पाने का तरीका वहां के कुछ महिला संगठनों ने खोजा है। मुल्क में पहली बार ऐसा हुआ है जब एक साथ हजारों महिलाएं सड़कों पर उतरी हैं जो फिर से पनपते आतंकवाद और घरेलू हिंसा के खिलाफ नारी सशक्तिकरण को हथियार बनाकर आवाज बुलंद कर रही हैं।

अफगान में जातीय और भाषाई समूह की तकरीबन पैंतीस सौ महिलाओं के एक संगठन ने संयुक्त रूप से वहां शांति की बहाली के मकसद से सड़कों पर मोर्चा निकालना शुरू किया है। यह मोर्चा पिछले एक माह से पूरे मुल्क में घूम-घूम कर महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक कर रहा है। बुराईंयों के खिलाफ सड़कों पर उतरी अफगानी महिलाओं की मुहिम उन लोगों के लिए तमाचे से कम नहीं है जो उन्हें कमतर आंकते हैं। गैर इस्लामिक देशों की देखादाखी अब मुस्लिम मुल्कों की आधी आबादी में भी अपने अधिकारोें प्रति लड़ने की ललक जगने लगी है। महिलाओं का यह मोर्चा उन महिलाओं को संबल देगा, जो सदियों से बंदिशों की बेड़ियां तोड़ना चाहती थीं। गौरतलब है कि अफगानिस्तान में महिलाओं को घरेलू समस्याओं व तालिबानी क्रूरता की भयावह का सामना दोबारा न करना पड़े, इसको ध्यान में रखकर ही महिलाओं ने मोचार्बंदी शुरू की है।

महिला सशक्तिकरण की ताकत से इस वक्त वहां रूढ़िवादी सोच वाले लोग सहमे हुए हैं। महिलाओं का इसके पीछे एक और मकसद है। दरअसल मुल्क में तालिबान आतंकियों की आहट एक बार फिर से सुनाई देने लगी है। ऐसा न हो इसके लिए महिलाओं ने खुद आगे आकर लोहा लेने का मन बनाया है जिसका उन्हें प्रत्यक्ष समर्थन भी लोगों का मिल रहा है। अफगानिस्तान इस वक्त फिलहाल तालिबान आतंकवाद से मुक्त है। मुल्क के लोग करीब दो दशकों से खुली फिजा में स्वतंत्र होकर सांस ले रहे हैं। बदलाव की बयार बहने लगी है। लड़कियां बिना किसी पाबंदी के स्कूल आने-जाने लगी हैं, महिलाएं अब वहां किक्रेट जैसे खेल खुलेआम खेलती दिखाई पड़ती हैं। जबकि वहां ऐसा करना मात्र सपने जैसा था।

पिछले दो आम चुनावों में कई महिलाएं प्रतिनिधि बनकर संसद में पहुंची हैं। लेकिन उनकी इस आजादी पर कुछ रूढ़िवादी सोच से ग्रस्त लोग ग्रहण लगाना चाहते हैं। वह नहीं चाहते कि महिलाएं यह सब करें। लेकिन ऐसे लोगों को जवाब देने के लिए महिलाओं ने अब कमर कस ली है। महिलाओं द्वारा निकाले जा रहे मोर्चे का पूरे मुल्क में जनसमर्थन मिल रहा है। महिला सशक्तिकरण की यह मुहिम तालिबानी लोगों को भी अखरने लगी है। अपने स्तर से वह भी रोकने की भरसक कोशिशें कर रहे हैं।अफगानिस्तान में करीब उन्नीस साल पहले सत्ता से बेदखल हुई तालिबान हुकूमत फिर से अपने पैर पसारना चाहती है। लेकिन अब शायद ही वह अपने मंसूबों पर कामयाब हो। क्योंकि अब उनके लिए इतना आसान नहीं। अफगानिस्तान में अब नई सुबह का आगाज हो चुका है।

इसमें भारत सरकार की अहम भूमिका है। एक वक़्त था, जब तालिबान का अफगानिस्तान पर राज था। मगर 2001 में अमरीकी हमले के बाद तालिबान सरकार सत्ता से बाहर हो गई थी। तालिबानी आतंकियों की अब कमर टूट चुकी है। उनका संगठन बिखर चुका है। अगर फिर भी उनका संगठन सिर उठाता है तो सवाल उठना स्वाभाविक होगा कि इतने सालों बाद आतंकी तालिबान संगठन इतना ताकतवर कैसे हुआ? इसके पीछे कौनसी शक्तियां हैं जो उन्हें ताकत देकर खड़ा करने का काम कर रही हैं। गौरतलब है कि अफगानिस्तान के नक़्शे पर सबसे पहले तालिबान का जन्म नब्बे के दशक में हुआ था। तब मुल्क में भयंकर गृह युद्ध छिड़ा हुआ था। तमाम ताकतवर कमांडरों की अपनी-अपनी सेनाएं थीं। सब देश की सत्ता में हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ रहे थे। उस दौरान सच्चाई सामने आई थी कि उन्हें पूरी शक्ति पीछे से पाकिस्तान दे रहा है। क्योंकि उस समय लड़ने के तालिबान को पाकिस्तान हथियार मुहैया करा रहा था।

ऐसी ही कुछ संभावनाएं इस वक्त भी जताई जाने लगी हैं। अगर ऐसा होता है तो एकदम साफ है कि पाकिस्तान तालिबान को दोबारा से खड़ा करके भारत को घेरना चाहता है। क्योंकि भारत अफगानिस्तान को पिछले कुछ सालों से हर संभव सहयोग कर रहा है जो पाकिस्तान को अखर रहा है। खबरें कुछ ऐसी भी आई हैं कि तालिबान को पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि चीन भी सहयोग कर रहा है। तालिबान एक कट्टरपंथी व चरमपंथी आतंकी संगठन है। उसकी सोच विभाजित करने वाली रही है। खून की नदियां बहाकर उन्होंने कभी अफगानिस्तान पर कब्जा किया था। उनके कार्यकाल में महिलाओं को घरों से निकलने की आजादी नहीं थी। लड़कियों का स्कूल जाना, महिलाओं का चुनाव लड़ना बहुत दूर की बात हुआ करती थी। उनके कार्यकाल में सबसे ज्यादा जुल्म महिलाओं पर हुए। तालिबानी आतंकी किसी के भी घर में घुसकर महिलाओं के साथ घिनौना कृत्य करते थे। मना करने पर सरेआम गोलियों से भून दिया जाता था। तालीम हासिल करने वाली बच्चियों को सड़कों पर नंगा करके कोड़ों से मारा जाता था। जुल्म की इंतेहां पार कर दी थी।

लेकिन उनकी सत्ता से बेदखली के बाद सबकुछ सामान्य हुआ। लड़कियां स्कूल जाने लगी, महिलाएं चुनाव लड़ने लगी। यूं कहें कि हर बंदिशों की बेड़ियों से आजाद हो गईं। तालिबानियों की दस्तक को भांपते हुए ही तमाम ‘अफगान महिला संगठनों’ ने सड़कों पर उतरने का निर्णय लिया है। तालिबान ने दो माह पहले अपनी आमदगी को लेकर ‘स्प्रिंग आॅफेंशिव’ का ऐलान कर चारों ओर खलबली मचा दी थी। तालिबान के नेता मुल्ला उमर की याद में इस आॅपरेशन का नाम ओमारी रखा गया। अफगान की मौजूदा सरकार ने इस स्थिति से लड़ने की लिए भारत से मदद की गुहार लगाई है। दरअसल अफगान दोबारा से आंतक की मंडी नहीं बनना चाहता। उसे अब खुली फिजा में सांस लेने की आदत हो गई है इसलिए वहां की आवाम फिर से बंदिशों की जंजीरों में जकड़ना नहीं चाहती।

रमेश ठाकुर

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