Disaster : प्रकृति के समक्ष सरकारें भी बेबस हैं, फिर आम मनुष्य तो चीज ही क्या है। हमने अनेकों बार देखा एवं अनुभव किया कि हम प्रकृति से लड़ नहीं सकते, मुकाबला भी नहीं कर सकते, लेकिन बेहद दुखद बात है कि हम प्राकृतिक आपदाओं से सीख भी नहीं ले रहे। भौतिकवाद के नशे में चूर विकास के आसमान को चूमने को आतुर, विनाश के धरातल पर खड़ा मनुष्य कब समझता है कि हम प्रकृति के साथ कितना खिलवाड़ करते हैं। कुछ साल पहले ही हम कोरोना काल का दंश झेल चुके हैं। मनुष्य द्वारा प्रकृति पर बार-बार उत्पात करने तथा सजा भुगतने का यह क्रम अनवरत रूप से चल रहा है। सड़क दुर्घटनाएं, रेल हादसे, आगजनी, पुल टूटना, गैस रिसाव, इमारतों का ढहना तथा महामारी आदि आपदाएं होना आम बात है।
यह सर्वविदित है कि जहां मानवीय जीवन होगा, वहां पर आग, बाढ़, तूफान, सूखा, हिमस्खलन, भूकंप, सुनामी, बिजली गिरने, बादल फटने तथा महामारी की संभावना भी होगी। मौसम विभाग के रेड अलर्ट, आॅरेंज अलर्ट तथा चेतावनियां भी अब आम बात हो गई है। यह भी सत्य है कि हम आपदाओं को समाप्त तो नहीं कर सकते, बल्कि उनको कम करने के लिए प्रयत्न तो कर ही सकते हैं। हम आपदा और समस्याओं की संवेदनशीलता को नकार नहीं रहे हैं, लेकिन मानसून के मौसम में ये दृश्य हर साल दिखाई देते हैं, इन पर गौर नहीं किया जाता।
नदियां जिस तरह से उफान पर हैं, उसे देखते हुए सिर्फ आपदा प्रबंधन की घंटियां ही बजाई जा सकती हैं या अब बाढ़ जैसी स्थिति के इतिहास से बहुत कुछ सीखना होगा। दरअसल जल निकासी की प्राकृतिक भूमिका से जहां-जहां छेड़छाड़ हुई या विकास की हिदायतों को नजरअंदाज किया गया, वहां-वहां मौसम ने कहर बरपाया है। Editorial Hindi
यह ठीक है कि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, सड़कों, पुलों, विद्युत परियोजनाओं का निर्माण, बड़ी-बड़ी इमारतों तथा कारखानों का निर्माण भी लोगों की जीवन शैली को सुखद बनाने तथा, प्रदेश की आर्थिकी को मजबूत करने के लिए किया जाता है, परन्तु यह मानवीय जीवन की कीमत पर हरगिज नहीं होना चाहिए। हिमाचल प्रदेश में आवश्यक है कि आपदाओं की तीव्रता तथा इनकी आवृत्ति में कमी हो। लोगों की जान-माल तथा सम्पत्ति की सुरक्षा होना अति आवश्यक है। संदेश स्पष्ट है कि जल-प्रबंधन पर हमें ईमानदारी व गंभीरता से काम करना होगा। Disaster
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