लघुकथा : दो पेड़

एक पेड़ ने अपने मित्र पेड़ से पूछा-आखिर आज कल इन इन्सानों को हो क्या गया है! ये कम ही चहल पहल करते हैं और घरों में कैदियों की तरह रह रहे हैं। दूसरे पेड़ ने कहा-‘‘ये खुद जिम्मेदार हैं।
पेड़-‘‘वो कैसे भाई?’’
मित्र-भाई इन इन्सानों ने पहले तो कुदरत को अपना घर बनाया फिर अपने कुछ झूठे सुखों के लिए उसी कुदरत के घर को उजाड़ना शुरू कर दिया। इन्सान इस तरह अंधा हो गया कि प्रकृति को खत्म करना शुरू कर दिया। इन्सान अब तो आपस में ही एक-दूसरे की जान के दुश्मन बने हुए हैं। परिणाम ये हुआ कि अब बारी कुदरत की है और इन्सानों को रोना है या चू कहें कि इन्सानों को कोरोना है। ऐसा नहीं है कि सभी इन्सानों ने ऐसा किया है लेकिन वो सब कहीं ना कहीं इस जुर्म में शामिल हैं। जब तक हर इन्सान अपनी गलतियों पर ध्यान नहीं देगा, तब तक कुदरत इस विनाशलीला को खत्म नहीं करने वाली।
पेड़-‘‘किसी ने सच कहा है कि अति कभी अच्छी नहीं होती!’’

हिमांशु सिंह परिहार

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