जलवायु परिवर्तन से संबंधित ताजा रिपोर्ट, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने ‘मानवता के लिए खतरनाक स्थिति’ के रूप में परिभाषित किया है, हर अकल्पनीय आपदा को रेखांकित करती है। इससे परे यह भारत के लिए कोई नई बात नहीं है। भारत वास्तव में कई दशकों से जलवायु परिवर्तन के त्वरित और गंभीर परिणामों का गवाह और शिकार रहा है। रिपोर्ट में उजागर हर खतरा भारत के समकालीन इतिहास में दर्ज है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में हाल ही में हुए भूस्खलन बढ़ते खतरों के प्रमाण हैं। सभी जिलों के एक तिहाई से अधिक हिस्से सूखे और बाढ़ की चपेट में हैं- मानसून में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के हजारों गांव बाढ़ से जलमग्न हो गए हैं, जोकि केवल कुछ घंटों की अनियमित और रिकॉर्ड बारिश के कारण हुआ है। हिमालय में ग्लेशियरों के पिघलने के बारे में वर्ष 2005 से जानकारी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंद महासागर के साथ-साथ अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के वैश्विक औसत से अधिक तेजी से गर्म होने से स्थिति और भी खराब हो जाएगी। समुद्र के बढ़ते स्तर से कोच्चि, चेन्नई, मुंबई और कोलकाता जैसे शहरों के अस्तित्व को खतरा है, जहां तीन करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। सवाल यह है कि भारत जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष और संभावित परिणामों को कम करने के लिए घरेलू स्तर पर क्या कर सकता है। अब जबकि भारत आजादी के 75 वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है, यह जीवन और आजीविका के निर्वाह को सुनिश्चित करने का एक उपयुक्त क्षण है। भारत को स्थानीय समाधानों पर मुखर होना चाहिए और सभी चुनौतियों से निपटने के लिए शासन के ढांचे को फिर से आकार देना चाहिए। लोगों को खतरे के क्षेत्रों से बाहर निकालने के लिए जोखिम के आधार पर वर्गीकृत प्रवास योजना की ओर बढ़ने और अनिश्चितता का सामना कर रही आबादी को आजीविका के लिए फिर से कुशल बनाने की जरूरत है और पेट्रो अर्थव्यवस्था वाले देशों से डॉलर भेजने वाले पश्चिम एशिया में कार्यरत 35 लाख श्रमिकों के लिए भी दूसरी योजना के बारे में सोचना चाहिए। भारत को अपनी एक अरब से ज्यादा की आबादी को खिलाने के लिए पानी बहुत महत्वपूर्ण है। पंजाब और हरियाणा में किसान धान उगाने के लिए भूजल का दोहन कर रहे हैं, और गन्ना कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है। अब समय आ गया है कि ‘प्रति बूंद अधिक फसल’ के विचार को धरातल पर उतारा जाए। रिजर्व बैंक की 2020 की प्राथमिकता क्षेत्र ऋण नीति और ई-रुपी की सुविधा से ड्रिप सिंचाई और सौर खेतों को बढ़ावा मिल सकता है। ठीक नए कृषि कानूनों की तरह, राज्यों को मॉडल फार्मों के जरिये सफलता का प्रदर्शन करना चाहिए, जैसा, सी सुब्रमण्यम ने हरित क्रांति के लिए किया था। राजनीतिक अर्थव्यवस्था को पर्यावरण अनुकूल बनाने का सकारात्मक लाभ है- रोजगार, आय एवं सतत विकास। प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी बनती है कि वे प्राकृतिक स्त्रोतों का दोहन न करें, उनका प्रयोग सीमित करें, पेड़ों की कटाई को लेकर नई रणनीति बनाने की आवश्यकता है। हमें जलवायु परिवर्तनों को लेकर नई ठोस नीति बनानी होगी।
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