कर्नाटक में राजनीतिक उथल-पुथल

Initiative to curb the business of rental kakh

आखिर कई दिनों की ड्रामेबाजी के बाद कर्नाटक की जेडीएस कांग्रेस सरकार गिर ही गई। इस घटना चक्कर से एक बार फिर संसदीय प्रणाली की संख्या की ताकत पर उंगली उठी है। किसी देश या राज्य के लिए राजनीतिक स्थिरता सबसे बड़ी शर्त होती है। 13 महीनों के बाद सरकार का टूटना राज्य के लोगों के लिए काफी बड़ा झटका है। यह बात लगभग तय है कि राज्य में येदीयुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनाएगी। यदि इससे उलट मध्यकालीन चुनाव होते हैं तो इसका जनता पर बड़ा आर्थिक बोझ बढेÞगा। कर्नाटक के इस घटना चक्कर को मीडिया ने अधिकतर ‘नाटक’ का नाम दिया है।

वास्तव में बागी विधायकों ने लालच में आकर लोकतंत्र को तमाशा बना दिया है। पूरी बात तो नई सरकार बनने के बाद सामने आएगी परंतु यह जरूर स्पष्ट है कि जेडीएस-कांग्रेस सरकार के खिलाफ कोई बड़ी लोक लहर नहीं थी। केवल विधायकों में कुर्सी मोह ही सरकार को ले डूबी। वैसे भी दो वर्षांे तक लोग सरकार के प्रदर्शन को देखकर परखते हैं कुछ कांग्रेसी विधायक मुख्य मंत्री कांग्रेस का होने की मांग कर रहे थे। ऐसे विधायकों का उद्देश्य भी सत्तासुख हासिल करना था। बागी इतने चालाक हैं कि दल बदली विरोधी कानून के बावजूद उलट फेर में वह कामयाब हो गए हैं। भाजपा पर लगाए जा रहे आरोपों में कितनी सच्चाई है इस संबंधी तो फिलहाल कोई निर्णय नहीं लिया जा परंतु यह जरूर स्पष्ट है कि हर विधायक ही अब मंत्री बनना चाहते हैं।

पंजाब सहित कई राज्यों में पिछले समय में मंत्रियों की संख्या 15 फीसदी तय होने के कारण मुख्य संसदीय सचिवों की चोरमोरी के साथ सत्ताधारी पार्टी के चहेते की एडजस्टमेंट की गई। सबसे हैरानी वाला कारनामा तो दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने किया जब मंत्री बनने से रह गए सभी के सभी विधायकों को मुख्य सांसदीय सचिव बना दिया गया। कुर्सी का लालच भारतीय राजनीति के साथ ऐसा जुड़ गया है कि पलों में वफादारी बदल जाती है। राजनीति व्यापार बन कर रह गई है। जहां से लाभ मिलता दिखता वहीं विश्वास बेच दिया। कुछ भी हो कर्नाटक का राजनीतिक संकट राजनीति पर एक बदनुमा दाग है। सरकार शब्द जनता की सेवा के लिए कम व केवल नि:शुल्क की सुविधाएं हासिल करने का दूसरा नाम बन गया है। बिना किसी मुद्दे से सरकार तोड़ने वाले विधायकों को उन मतदाताओं को जवाब देना होगा, जिन्होंने उनको चुन कर सदन में भेजा था। बुद्धिजीवी यह भी सोचने के लिए मजबूर हैं कि सांसदीय प्रणाली के विकल्प पर विचार होना चाहिए।

 

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