चुनाव में नेता न करें सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग

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पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है और अब राज्यों की पुलिस की सबसे मुश्किल परीक्षा की घड़ी शुरू हो गई है। आज यह सच है कि हमारी कोई भी सामाजिक या राजनीतिक गतिविधि पुलिस के बिना संभव नहीं। एक प्रौढ़ लोकतंत्र में तो उम्मीद यही की जाती है कि जनता एक सांस्कृतिक अनुशासन के तहत अपने प्रतिनिधि चुनती रहे और शांति व्यवस्था भी बनी रहे। सात दशकों और पंद्रह से अधिक आम चुनावों के बाद भी हम ऐसी स्थिति में नहीं आ पाए हैं कि बिना पुलिस भागीदारी किसी चुनाव के संपन्न होने की कल्पना कर सकें। हमारे लिए तो इजरायल या स्वीडन जैसे समाज किसी दूसरे लोक के होंगे, जहां पिछले कुछ महीनों में कई चुनाव थोड़े-थोड़े अंतराल में हुए और सामान्य नागरिक की रोजमर्रा की जिंदगी बिना पटरी से उतरे चलती रही।

चुनाव के बड़े बंदोबस्त में पुलिस के समक्ष मुख्य चुनौती नफरी या संसाधनों से अधिक उस उम्मीद पर खरी उतरने की होती है, जो उससे सत्ता या विपक्ष, आम जनता और निर्वाचन आयोग की होती है। सबसे ज्यादा दिक्कत तो सत्ताधारी दल की उम्मीदों से पैदा होती है। यदि निर्वाचन आयोग राज्यों को पर्याप्त केंद्रीय संख्या में पुलिस बल उपलब्ध करा भी दे, तब भी उनकी तैनाती और नेतृत्व तो राज्य अधिकारियों के हाथों में ही रहता है। यहीं से वह संकट पैदा होता है, जिसके दर्शन हमें पश्चिम बंगाल में पिछले कई चुनावों में होते रहे हैं, वहां यह शिकायत आम है कि मतदाताओं को बूथ तक पहुंचने ही नहीं दिया गया या चुनाव के पहले अथवा खत्म होते ही उन्हें प्रताड़ित किया गया। चुनाव की इस पूरी प्रक्रिया के दौरान लगभग तीन महीने बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, जिनमें लगभग रोज ही सरकारी मशीनरी की निष्पक्षता का इम्तिहान होता रहता है।

यही वह समय होता है, जब सरकारें अपनी पसंद-नापसंद के अधिकारियों को ताश के पत्तों की तरह इधर-उधर फेंटती हैं। पूरी कवायद से ही स्पष्ट हो जाता है कि चुनाव में इन अधिकारियों की क्या भूमिका होने वाली है या सत्ताधारी पार्टी उम्मीद है? यद्यपि चुनाव आयोग ने इस भूमिका को सीमित करने के कुछ प्रयास जरूर किए हैं, लेकिन उनका कोई अपेक्षित असर पड़ा हो, ऐसा नहीं लगता। इस अवधि में अलग-अलग राजनीतिक दल रैलियां करते हैं और इन रैलियों के स्थान तथा रैलियों में बोली जाने वाली भाषा या वहां प्रदर्शित पोस्टर, बैनर और हथियार- बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें इन अधिकारियों की निष्पक्षता की परख होती रहती है।

यह स्वाभाविक ही है कि खास तौर से चुनाव के मौके पर पदस्थापित किए गए अधिकारी हमेशा शिकायत के पात्र बने रहते हैं। चुनावों के प्रबंधन में पुलिस के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी साख को बचाते हुए सांविधानिक अपेक्षाओं पर खरे उतरने की रहती है। इसमें कोई बहस नहीं हो सकती कि चुनाव में असफलता से सीधा नुकसान पुलिस की छवि पर पड़ता है, पर इसमें भी कोई शक नहीं होना चाहिए कि इस छवि को महज पुलिस ही नहीं बनाकर रख सकती। यहां भले ही पुलिस नेताओं के इशारों पर उनका पक्ष मजबूत कर दे परन्तु आखिर में इसमें नुक्सान नेताओं एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था का ही होता है। अत: राजनीति में बेहतर होगा यदि नेता प्रशासनिक मशीनरी से कोई छेड़छाड़ न ही करें।

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