लघुकथा: आभार

हर की पैड़ी पर निरंतर बढ़ती भीड़ को देखते हुए भवगीत का ध्यान चौड़े पाट की ओर गंगा-स्नान करते भक्त पर गया तो वह भी उधर ही जा पहुंचा और घाट पर लगे एंगल को पकड़कर ज्यों ही गोता लगाने को हुआ ही कि उसके पाँव उखड़ गए। बस, फिर क्या था, बरबस ही जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष शुरू हो गया। पल बीतते पसलियां चरमरा उठीं। सांसें भी जवाब देने लगीं। देखते-देखते भीड़ जमा हो गई, असमंजस की स्थिति में और तमाशबीन की तरह भी। तभी झुंड को चीरता हुआ एक युवक आगे बढ़ा, एकदम फटेहाल… मगर उसने सूझ-बूझ दिखाई। तीन-चार लोगों को परस्पर बाहें पकड़ाकर चैन बनाई, खुद मचलती धारा में दूसरी-तीसरी सीढ़ी पर खड़ा हुआ और पलक झपकते भवगीत को बाहर खींच लिया। मगर वह संभल पाता, उससे पहले ही युवक भीड़ में ओझल हो गया।
मौत के मुँह से लौटा भवगीत इधर-उधर दूर-दूर तक, फिर आसमान की ओर नजर दौड़ाता रहा और मन ही मन बुदबुदाता रहा, ‘‘भाई, तुम इन्सान हो, फरिश्ता हो, जो भी हो, जहां भी हो, तुम सचमुच जग-भाता हो, जीवन-दाता हो।…मेरा आभार स्वीकार कर लेना।’’

भगवती प्रसाद गौतम, कोटा (राजस्थान)

 

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