बंटवारे की कहानी, पीड़ितों की जुबानी : जब ट्रेन से अटारी पहुंचे तो लोगों ने खूब प्यार दिया

India-Pakistan

बंटवारे के बाद पाकिस्तान से हिंदुस्तान आए बोधराज गम्भीर ने सांझा किये संस्मरण

  • जालंधर से सोनीपत और फिर पहुंचे गुरुग्राम

सच कहूँ/संजय मेहरा
गुरुग्राम। बंटवारे के समय जितनी यातनाएं लोगों ने झेली। किस तरह से विस्थापित होकर लोगों ने फिर से खुद को स्थापित किया। वह दौर कभी भुलाया नहीं जा सकता। इन सब पलों में से भी लोगों ने खुशियां बटोरी। उस समय को चुनौती मानते हुए काटा और आज समाज में पूरे मान-सम्मान के साथ जी रहे हैं। इन्हीं में से एक हैं पाकिस्तान में जन्में और बंटवारे के बाद हिंदुस्तान पहुंचे बोधराज गम्भीर। बंटवारे के समय की यादों के झरोखे में झांकते हुए बोधराज गम्भीर बताते हैं कि उनका जन्म पाकिस्तान के दौलताबाद गांव 12 मार्च 1936 को हुआ था, जो 1947 में बंटवारे से पहले हिंदुस्तान था।

उनका पालन-पोषण दौलता वाला में ही हुआ। वह वोहवा शहर से तकरीबन 6 मील पर था। उनके पिताजी और दो बड़े भाई किराना की दुकान करते थे। वे उस समय 11 साल के थे और छठी क्लास में पढ़ते थे। बोधराज गम्भीर के मुताबिक वे पांच भाई थे। बकौल बोधराज, मैं चौथी क्लास तक दौलत वाला गांव में पढ़ा हूं और छठी क्लास वोहवा शहर में पढ़ा था। अपने भाईयों का हाथ बंटाने के लिए वोहवा से दुकान का सामान घोड़े पर बैठकर अकेला लाता था। स्कूल में उर्दू पढ़ाई जाती थी। वहां पर पक्की सड़कें नहीं होती थी। कच्चा रास्ता होता था। रास्ते में किसान लोग खेतों में काम करते रहते थे।

किसान बेहद सज्जन होते थे। हमारे गांव में और शहर में बेर और खजूर के बहुत पेड़ थे। वे खजूर के पेड़ पर चढ़कर खजूर उतारा करते थे। वोहवा शहर में एक बहुत बड़ा गौंसाई नाम का मंदिर था और भी कई मंदिर थे। मंदिर का बड़ा पुजारी पंडित जुगलदास था, जो बाद में विभाजन के बाद गुडगांव में आ गया। शहर में गंग नाम की नहर बहती थी, जिसका पानी साफ और स्वच्छ होता था। बोधराज बताते हैं कि उनका स्कूल शहर के बाहर था और दशहरे का त्योहार भी शहर के बाहर भी मनाया जाता था। लोग बड़े चाव से त्यौहार मनाते थे। बिजली आदि नहीं हुआ करती थी। पढ़ाई के समय सरसों के तेल का दीया जलाकर पढ़ा जाता। घरों में लालटेन में मिट्टी का तेल प्रयोग होता था।

जालंधर, सोनीपत के रास्ते पहुंचे गुरुग्राम

उन्होंने बताया कि जब देश आजाद हुआ तो बस से पहले डेरा गाजी खान में लाया गया। उसके बाद बसों में मुजफ्फगढ़ और फिर ट्रेनों से भारत लाया गया। पहले जालंधर, फिर सोनीपत और फिर गुरुग्राम में लाया गया। जब ट्रेन अटारी स्टेशन पहुंची तो वहां के लोगों ने बहुत प्यार से और खुशी से स्वागत किया। चाव से खाना खिलाया और जय भारत के नारे लगाये।

मक्खन के गोले के साथ खाते थे बासी रोटी

बोधराज बताते हैं कि शहर वोहवा में चारों तरफ कच्ची मिट्टी के बने हुए बंद दरवाजों वाली चौकियां होती थी। हिन्दू आबादी शहर के अन्दर होती थी। बाकी लोग शहर के बाहर रहते थे। लड़ाई के समय ऊपर चौबारे पर दो फौजी गन के साथ पहरा देते थे। शहर और गांव में दूध-दही की कोई कमी नहीं थी। दूध बेचा नहीं जाता था। हर घर में गाय होती थी। बासी रोटी मक्खन के गोले के साथ खाई जाती थी, बड़ा स्वाद आता था।

अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और TwitterInstagramLinkedIn , YouTube  पर फॉलो करें।