सीएए जैसे उपद्रवी मसलों पर न बनें फिल्में

Cinema

 सिनेमा के बदलते रूप को आप किस रूप में देखते हो?

गीतों के मुखड़े किसी भी बेरंग जीवन में रंग भरने का असरदार जरिया होते हैं। लेकिन मुखड़े खुद अब बेरंग हो गए हैं। भारतीय सिनेमा पिछले दो दशकों से एकदम बदल चुका है। एक जमाना था जब फिल्मों में दो पार्ट हुआ करते थे, पहला स्टोरी का तो और दूसरा गानों का। अब न ढंग की स्टोरी रही, न ही गाने। इसे समय की मांग कह लो, या फिर समय का बदलाव! रीमिक्स के दौर में सब पीछे छूट गया। रीमिक्स के नाम पर संगीत के साथ भद्दा मजाक किया जा रहा है। इसके लिए मैं प्रत्यक्ष रूप से किसी आधुनिक गीतकार को दोषी नहीं मानता। दोषी वो हैं जो ऐसे गीतों को बढ़ावा देते हैं। वह कौन हैं बताने की शायद जरूरत नहीं!

 नए-पुराने गीतकारों में प्रतिस्पर्धा का दौर भी चल पड़ा है?

आज हर दूसरे दिन नई आवाज सुनने को मिलती है। पर, मैं इसे प्रतियोगिता नहीं मानता। प्रतियोगिता सुनने वालों में होती है वह खुद फर्क तय करते हैं। हां, वैसे किसी भी कलाकार के लिए एक स्वस्थ प्रतियोगिता बहुत जरूरी है। नहीं तो उसकी कला में निखार कैसे आएगा। प्रतियोगिताएं कलाकार को आगे ले जाने का काम करती हैं। जितना मुश्किल होगा, गाने का स्तर उतना अच्छा होगा। लेकिन प्रतियोगिता सामान्य लेबल की होनी चाहिए। गीतों का गला नहीं घोटना चाहिए। नए प्रयोगों में कोई बुराई नहीं, लेकिन अपने कल्चर को रखना ही चाहिए।

 काफी समय से आपने कोई विज्ञापन नहीं लिखा?

ठण्डा मतलब कोका कोला’ एवं ‘बार्बर शॉप-ए जा बाल कटा ला’ जैसे प्रचलित विज्ञापन हैं जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली। विज्ञापनों की अगल विधा है कम समय अवधि में बहुत कुछ दशार्ना। डिमांड बहुत रहती है, पर स्पेस की कमी के चलते मेरे विज्ञापन समय सीमा में फिट नहीं बैठते। मेरा फोकस हमेशा से गीतों पर ही रहा है। जो मेरी पहचान भी है। मेरी हमेशा से कोशिश रही है कि मैं ऐसा करूं जिसमें जादुई छुअन हो। अपने काम के साथ न्याय कर सकूं। आजकल आइटम गाना फिल्म का जरुरी हिस्सा बन गया है।

ठीक है इसमें कोई बुराई भी नहीं है, लेकिन कितने लोग शोले के महबूबा-महबूबा जैसा आइटम गीत बना रहे हैं। मुगले-आजम और मदर इंडिया में भी आइटम गाना था, लेकिन आज बिना जरुरत इसे फिल्म में ठूंसा जा रहा है। आइटम सॉन्ग का मतलब अधनंगी लड़कियां और शोर-शराबा करना ही रह गया है। हेलेन भी आइटम सांग किया करतीं थी लेकिन आज कोई उनका मुकाबला कर सकता है क्या, शायद नहीं? रही बात विज्ञापनों की तो अब प्रत्येक विज्ञापन में फूहड़ता परोसी जा रही है।

 दर्शक अब सिनेमा को गंभीरता से नहीं लेते?

कई कारण हैं? सिनेमा के प्रति दर्शकों की तल्लीनता अब पहले जैसी नहीं रही। इसी कारण दर्शक सिनेमा को अब गंभीरता से नहीं लेते। दो-तीन दशक पहले नाम मात्र के गीतकार-संगीतकार हुआ करते थे लेकिन सब एक से बढ़ कर एक टेलैंटेड और मेहनती। उनके लिए गीत-संगीत ही सबकुछ होता था। एक टीम की तरह गीतकार, संगीतकार, गायक, निमार्ता, निर्देशक बैठते थे और फिल्म की सिचुएशन के हिसाब से गाना तैयार करते थे। आज अनगिनत गीतकार और संगीतकार ,गायक हैं, लेकिन इस भीड़ में कुछों की ही बराबरी उस दौर के गीत-संगीतकारों से की जा सकती है। ऐसा नहीं है कि आज अच्छे गाने नहीं बनते, लेकिन आज गायक और संगीतकार के दिमाग में गाने के अलावा और भी हजारों चीजें घूमती रहती हैं।

 विशुद्व गीतों को आखिर बढ़ावा कौन दे रहा है?

संतोष आनंद व मोहम्मद अजीज जैसे फनकारों की कदर नहीं होगी, तो विशुद्वता अपने आप पनपने लगेगी। वैसे देखा जाए अब बॉलीवुड में शॉट गानों की मेकिंग स्पीड तेजी से पकड़ चुकी है। शुद्व गानों में विशुद्वता घोलने का एक कारण यह भी हो सकता है। कुछ फिल्मकार बिना गीत के भी फिल्में बनाने लगे हैं। फिल्म में गाना न हो, तो वो अच्छी फिल्म को डुबो भी सकता है। फिल्मों में गानों को डालने का सेलेक्शन भी अब गलत होने लगा है। ऐसे में गानों की आत्मा को मारने के समान होता है।

आप केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष हैं, बदलाव ला सकते हो?

कई फिल्मों के सीन काटे गए हैं और कई फिल्मों पर रोक भी लगाई है। आजकल कुछ इस तरह ही फिल्में बन रहीं हैं जो बतातीं है कि लोगों की पसंद बड़ी तेजी से बदल रही है। शाहरुख खान बड़े जबरदस्त कलाकार हैं उनकी अपनी जगह है। लेकिन गीत-संगीत तो इन सबसे बढ़ कर रहा है। ढेरों ऐसी फिल्में हैं जो गानों के बल पर ही चलीं और आज भी लोग गानों से खिचें थियेटर चले आते हैं।

 सीएए के खिलाफ हो रहे आंदोलन को आप किस रूप में देखते हो?

सरकार की नीतियों और नियत के खिलाफ विरोध करना जनमानस और विपक्षी दलों का मौलिक अधिकार होता है। पर, दायरे में रहकर, किसी को कोई नुकसान न हो। लेकिन मौजूदा मूवमेंट में ऐसा देखने को नहीं मिला। सरकारी संपत्तियों को सरेआम आग के हवाले करना, बसों को जलाना, तोड़फोड़ करना व हुड़दंग मचाने को आंदोलन नहीं कह सकते। इसके पीछे निश्चित रूप से कुछ और ही होता है। मुझे लगता है इस तरह के मसलों पर फिल्मों का निर्माण भी नहीं होना चाहिए।

रमेश ठाकुर

 

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