श्रृंखला का अंतिम मुकाबला, किंतु अंत नहीं

असम, केरल, तमिलनाडू पचिम बंगाल और पुडुचेरी में हाई वोल्टेज चुनाव प्रचार चल रहा है ओर यह आशानुरूप भी है क्योंकि इन चुनावों में सभी पार्टियों का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। पेशेवर राजनेताओं जिनमें वे लोग भी शामिल हैं जिनके लिए राजनीति वंशानुगत पेशा है, उनके लिए इस चुनाव के परिणामों का व्यापक प्रभाव होगा। इन सभी पांच राज्यों में राजनीति अब वैसी नहीं रह गयी जैसे कि इन राज्यों में पिछले चुनावों के दौरान थी।
भाजपा का नाटकीय उदय तथा प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अंतर्राष्ट्रीय जगत में अपनी छवि स्थापित करने तथा भाजपा द्वारा अपना जनाधार बढ़ाने के निरंतर प्रयासों के चलते इन चुनावों का महत्व अत्यंत बढ़ गया है। लोगों की राजनीतिक जागरूकता भी बढ़ रही है। विधान सभा चुनाव अब राज्य की राजनीति या राज्य स्तरीय नेताओं तक सीमित नहीं रह गयी है। अब इनका प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर भी पडता है चाहे वे उत्तर प्रदेश जैसे बडे राज्य हों या पुडुचेरी जैसे संघ राज्य क्षेत्र। यह भी सच है कि जिन रज्यों में दो बडी राष्ट्रीय पार्टियां एक दूसरे के मुकाबले में हैं, जैसा कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में देखने को मिला और तमिलनाडू तथा पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जहां पर क्षेत्रीय पाटिंर्यों का दबदबा है और उन राज्यों में जहां पर चुनाव पूर्व और चुनाव पश्चात गठबंधन चुनाव परिणाम को निर्धारित करते हैं जैसा कि महाराष्ट्र और कर्नाटक में देखने को मिला। इसलिए लोक सभा चुनावों के बीच में होने वाले विधान सभा चुनावों का महत्व बढ़ गया है और उनके प्रति जनता का उत्साह कम नहीं हुआ है जैसा कि इन चुनावों में चुनाव प्रचार के दौरान देखने को मिल रहा है।
पेशेवर चुनाव प्रबंधकों की नियुक्ति की जा रही है और विभिन्न स्तरों पर अध्ययन कराया जा रहा है। राज्य राजनीति का राष्ट्रीयकरण से भाजपा का विस्तार हो रहा है। विभिन्न पार्टियों के राष्ट्रीय नेता राज्य स्तरीय चुनाव अभियान में पूरा समय दे रहे हैं। राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय मुद्दे मिलकर एक जैसे हो गए है और इसलिए प्रत्येक चुनाव का महत्व बढ़ रहा है। जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें चुनाव के दौरान सामान्य जनजीवन में बदलाव देखने को मिलता है। राजनीतिक पार्टियों, नेताओं और उम्मीदवारों के बारे में आम जनता में चचार्एं आम बात है। वस्तुत: कांग्रेस के रूप में एक दल के वर्चस्व के कम होने के साथ राज्य राजनीति राज्य तक सीमित रहने की अवधारणा पृष्ठभूमि में चली गयी है। अब प्रत्येक चुनाव राष्ट्रीय घटनाएं बन गयी हैं जो सभी राज्यों में सभी राजनीतिक दलों और राजनेताओं को प्रभावित करते हैं और इसी के चलते 2021 के विधान सभा चुनावों में कडा मुकाबला देखने को मिल रहा है। क्या इन चुनावों के बाद कांग्रेस का पतन और भाजपा का और उदय होगा? कौन सी क्षेत्रीय पार्टी सत्ता में बनी रहेगी और कौन सी क्षेत्रीय पार्टी राष्ट्रीय लहर में समा जाएगी? क्या अंतर पार्टी और पार्टी के भीतर के संबंधों में बदलाव आएगा? क्या इन चुनावों में नए नेता उभर कर सामने आएंगे या पुराने नेता नेपथ्य में चले जाएंगे? इन प्रश्नों का उत्तर मई के बाद मिलेगा। किंतु आज चुनावी मौसम की गर्मी सभी को देखने को मिल रही है। इन पांच राज्यों में से राजग सरकार केवल असम में है इसलिए उसे इन चुनावों के परिणामों के बारे में अधिक चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है किंतु उसके समक्ष अनेक प्रतिद्वंदी हैं। हालांकि संसद में उसका संख्या बल अच्छा है। महागठबंधन, राष्ट्रीय मोर्चा, तीसरा मोर्चा आदि के संबंध में कोई भी पार्टी किंतनी भी छोटी हो वह अपने संभावित और वास्तविक सहयोगी और विरोधियों के प्रति उदासीन रह सकती है किंतु गठबंधन की राजनीति भी सरल नहीं है। आज का सहयोगी कल का प्रतिपक्षी बन सकता है क्योंकि गठबंधन विचारधारा पर आधारित नहीं होता है अपितु यह राजनीतिक समीकरणों पर आधारित होता है। यह किसी चीज के पक्ष में सकता है तो किसी चीज के विपक्ष में हो सकता है। यह समयबद्ध या उद्देश्यबद्ध हो सकता है। गठबंधन में सीटों के बंटवारे साझा चुनाव प्रचार और संसाधनों से एक दूसरे के सहयोगी की मदद की जा सकती है। भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल चुनावों में जीत का तात्पर्य है कि राष्ट्रीय स्तर पर उसकी स्वीकार्यता बढ़ना और घरेलू नीतियों तथा पडोसी देशों के साथ अपने संबंधों को सुदृढ़ करना। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं। भाजपा पश्चिम बंगाल चुनावों को गंभीरता से ले रही है और इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी सहित उसके बडे नेता चुनाव प्रचार कर रहे हैं और राज्य में जगह जगह बडी रैलियां आयोजित की जा रही हैं। पश्चिम बंगाल में इंडियन सेकुलर फ्रंट का यकायक सामने आना और कांग्रेस तथा वामपंथी दलों के साथ उसके गठबंधन ने पश्चिम बंगाल में चुनावी मुकाबले में एक नया मोड पैदा किया है। इंडियन सेकुलर फ्रंट का मुस्लिम मतदाताओं में प्रभाव है और यह तूणमूल कांगे्रस के लिए खतरा हो सकता है। यह मुस्लिम मतदाताओं को प्रभावित कर धार्मिक पहचान के आधार पर राजनीतिक विभाजन करवा सकता है और इससे राष्ट्रीय चुनाव प्रभावित होंगे। पश्चिम बंगाल के चुनावों को हाई वोल्टेज चुनाव कहा जा सकता है जहां पर तूणमूल कांगे्रस और भाजपा द्वारा हर पल आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं। इसी तरह तमिलनाडू में शशिकला ने सक्रिय राजनीति से सन्यास लेने की घोषणा कर सभी लोगों को चैंका दिया है। वे ऐसी नेता थीं जो किसी पद पर न रहते हुए भी चुनावी गर्मी कई गुना बढ़ा सकती थी। रजनीकांत का राजनीति में प्रवेश करना तथा चुनावी राजनीति को छोडना भी चैंकाने वाला रहा है। उनमें मतदाताओं को आकर्षित करने की शक्ति थी किंतु उन्होंने इसका परीक्षण किए बिना सभी राजनीतिक दलों को संदेह में रखा। डीएमडीके और पीएमके भी सौदेबाजी की राजनीति कर रहे हैं। कमल हासन की एमएमएम राज्य में विद्यमान गठबंधनों में फिट नहीं बैठती है और वह तीसरे मोर्चे की बात कर रहे हैं। जिसका कोई समर्थन नहीं कर रहा है। द्रविड पार्टियों के समक्ष कांग्रेस को अपनी कमजोरियों का पता है और इसके चलते राज्य में द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच मुख्य मुकाबला है तथा भाजपा अन्नाद्रमुक का समर्थन कर रही है। इन दो क्षेत्रीय दलों के बीच कड़ा मुकाबला है। केरल और पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों का विरोधाभासी रूख पुराना पड़ गया है और इसकी बार बार पुनरावृति हो रही है। उन्हें चुनावी मैदान में बने रहने के लिए प्रयास करना होगा। अप्रैल 2021 में इस श्रृंखला का यह अंतिम मुकाबला होगा किंतु यह अंत नहीं है। जुआबाजों की तरह राजनीतिक पार्टियां और राजनेता भी पुन: रेसकोर्स में आएंगी।
डॉ. एस सरस्वती

 

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