सोशल मीडिया का अनैतिक प्रयोग कब तक?

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वाक् एवं अभिव्यक्ति की मौलिक आजादी लोकतंत्र का एक अहम् पहलू है। इस अधिकार के उपयोग हेतु सोशल मीडिया ने जो अवसर नागरिकों को दिए, एक दशक पूर्व उसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की होगी। इसके माध्यम से अन्ना आंदोलन का प्रचार, निर्भया कांड के बाद यौन हिंसा के खिलाफ एक सफल आंदोलन, रोहित वेमूला प्रकरण पर छात्रों की लामबंदी आदि जैसे प्रयोग जहां सफल रहे, वहीं दूसरी ओर इसके माध्यम से दुष्प्रचार करने, धमकाने, अफवाहें फैलाने, निंदा अभियान चलाने, चरित्र हनन करने और समाज में तनाव पैदा करने की घटनाएं भी हो रही हैं।

लिहाजा पश्चिम बंगाल में इन दिनों सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने से सोशल मीडिया के दुरूपयोग की तरफ एक बार ध्यान गया है। एक तरफ हमारी सरकार डिजिटल इंडिया जैसे कार्यक्रम ला कर देश की तस्वीर बदलने का प्रयास कर रही है, तो दूसरी तरफ हम इस कार्यक्रम के एक महत्वपूर्ण हिस्से का दुरूपयोग कर सरकार और देश को ही चुनौती देने का काम कर रहे हैं।

पश्चिम बंगाल पहली मिसाल नहीं है। सोशल मीडिया के सहारे माहौल खराब करने की कोशिशों की एक लंबी फेरहिस्त है। उत्तर प्रदेश, बिहार, कश्मीर, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, ओडिशा जैसे राज्य किसी न किसी रूप में सोशल मीडिया से आहत हुए हैं। हाल ही में ओडिशा के भदरक जिला, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में सांप्रदायिक दंगे सोशल मीडिया के कारण ही हुए।

बहुचर्चित मुजफ्फरनगर दंगा कौन नहीं जानता? यह तो एक बानगी भर है। दरअसल देश के विभिन्न कोने में प्रत्येक दिन सोशल मीडिया के कारण कोई न कोई घटना जरूर घटती है। फेसबुक के अनुसार पिछले वर्ष जुलाई से दिसंबर तक की अवधि में भारत में 719 आपत्तिजनक कंटेंट्स को हटाया गया। ये वो कंटेंट्स थे, जो उन कानूनों का उल्लंघन करते थे, जो धार्मिक भावनाएं और राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान करने का निषेध करने के लिए बने हैं।

अगर गौर करें, तो पश्चिम बंगाल की घटना से हमारी दो कमजोरियों का पता चलता है। पहला यह कि हमारे आपसी संबंध इतने कमजोर और खोखले हो चुके हैं कि एक नाबालिग लड़के के एक फेसबुक पोस्ट से ही हमारी भावनाएं आहत हो जाती हैं। क्या हम इतने असहिष्णु हो गए हैं कि अपने विवेक का इस्तेमाल करना भी हमें गंवारा नहीं? दूसरी कमजोरी यह कि सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी का प्रयोग कर हमें विभिन्न समस्याओं पर आवाज बुलंद करनी चाहिए, लेकिन हम धार्मिक सौहार्द को बिगाड़ने का तंत्र इसे बना रहे हैं।

हमें देश की वास्तविक समस्या नजर नहीं आ रही है, देश को विकास की राह पर ले जाने का सुझाव देना हमें कतई पसंद नहीं, लेकिन मुद्दे को धार्मिक रंग देना हमारी नियति बन गई है। नतीजे के रूप में हम सामाजिक ताने-बाने को तोड़ते ही हैं, साथ-ही-साथ विकास के मार्ग में भी रूकावट बनते हैं।

बंगलादेश और मिस्त्र में सत्ता परिवर्तन और राजनीतिक परिवर्तन के लिए अरब-स्प्रिंग क्रांति-श्रृंखला के लिए सोशल मीडिया का प्रयोग क्या हम भूल गए? क्या इस बात की कल्पना भी किसी ने की होगी कि एक युवा सब्जी विक्रेता की आवाज ट्यूनीशिया से अरब के लगभग 15 विभिन्न देशों में पहुँच जाएगी? क्या किसी ने सोचा होगा कि एक बेहद ढांचागत तरीके से दूर दराज के लोगों को क्रांति से जोड़ा जा सकेगा? लेकिन, यह संभव हो सका केवल सोशल मीडिया के कारण। सरकार के कुशासन और तानाशाही के खिलाफ सोशल मीडिया पर जन सैलाब उमड़ पड़ा और कई देशों के दिग्गज शासकों को अपनी गद्दी गंवानी पड़ी, साथ ही कितनों को जेल की हवा भी खानी पड़ी।

भारत सरकार को भी समझना होगा कि हालात बिगड़ने पर इंटरनेट की सुविधा को कुछ समय के लिए बंद कर देने से समस्या का समाधान नहीं होने वाला। इससे उभरने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए जर्मनी जैसी किसी पहल की जरूरत है, अन्यथा एक नियमित अंतराल पर जानमाल और समय की बर्बादी के लिए हम तैयार रहें।

पश्चिम बंगाल की घटना से हमारी दो कमजोरियों का पता चलता है। पहला यह कि हमारे आपसी संबंध इतने कमजोर और खोखले हो चुके हैं कि एक नाबालिग लड़के के एक फेसबुक पोस्ट से ही हमारी भावनाएं आहत हो जाती हैं।

-रिजवान निजामुद्दीन अंसारी

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