नियुक्तियों के विवाद में उलझी सरकारें

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संविधान में नियम तय होने के बावजूद केंद्र व राज्य सरकारें उच्च अधिकारियों की नियुक्ति के लिए दो-चार हो रही हैं और रोजाना नियुक्ति संबंधी कोई न कोई विवाद खड़ा हो रहा है। इसका परिणाम कानून व्यवस्था की जिम्मेवारी संभालने वाले अधिकारियों के पद तीन-तीन सप्ताह तक खाली हो जाते हैं। ज्यादा विवाद पुलिस अधिकारियों और जांच एजेंसियों के प्रमुखों की नियुक्ति पर हो रहा है। अलोक वर्मा के इस्तीफे के बाद सरकार ने ऋषि कुमार को तीन सप्ताह के बाद सीबीआई का प्रमुख नियुकत किया है। सत्तापक्ष पुलिस व जांच एजेंसियों को अपने विरोधियों को टिकाने लगाने के लिए प्रयोग करती है। विपक्ष भी सत्ता में आने पर वही काम शुरू कर देता है। नियुक्तियों के विवाद संसद और विधानसभा में बहस का हिस्सा बनने लगे हैं। नियुक्तियों के लिए बनी चयन समिति में भी सहमति नहीं बनती। दरअसल सरकारें उच्च पदों पर नियुक्ति के लिए अधिकारियों की योग्यता की अपेक्षा, अधिक उसकी राजनैतिक वफदारी को प्राथमिकता देती हैं। नियुक्ति में निष्पक्षता व पारदर्शिता लाने के लिए लोक सेवा आयोग ने पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार राज्यों से छीनकर खुद संभाल लिया है, हालांकि अधिकारियों का पैनल राज्य ही तय करते हैं।

दरअसल राजनैतिक पार्टी व अधिकारियों का गठजोड़ ऐसा बन गया है कि अधिकारी सत्तापक्ष के इशारे पर चलते हैं। इसका प्रमाण इसी बात से मिल जाता है कि कई राज्यों के पुलिस प्रमुखों ने सेवानिवृत्ति के बाद लोक सभा /विधान सभा चुनाव लड़े हैं। लोक सभा चुनाव 2014 में दो दर्जन के करीब सेवामुक्त आईएएस और आईपीएस अधिकारी मैदान में उतरे। राजस्थान की दौसा लोक सभा सीट पर दो सेवामुक्त आईपीएस अधिकारी ही आमने-सामने थे। कई अधिकारियों के पारिवारिक सदस्य भी चुनाव में उतरते रहे। बिहार में एक आईपीएस अधिकारी ने टिकट की उम्मीद में रिटायरमेंट ली और जब टिकट न मिली तो वह दोबारा नौकरी कर ली।

 पंजाब का एक डीजीपी सेवामुक्ति के बाद चुनाव लड़ चुका है। देश के सेना प्रमुख रह चुके जेजे सिंह 2017 में पंजाब विधान सभा के चुनाव लड़ चुके हैं। हर किसी को चुनाव लड़ने का अधिकार है लेकिन राजनीति में आने की यह इच्छा अधिकारियों के मन में बड़ी कुर्सी की भूख की निशानी है जिसे पूरा करने के लिए वह अपनी ड्यूटी उसी तरह करते हैं जिससे वह अपने राजनैतिक उद्देश्य को पूरा कर सके। यह मामला गंभीर है लेकिन कोई भी इमानदारी से इसका समाधान निकालने के लिए तैयार नहीं। हाल तो यह है कि चुनाव आयोग अधिकारियों के पक्षपात से इतना परेशान हो चुका हैं कि 2019 के लोक सभा चुनाव के लिए चुनाव आयोग राज्य सरकारों को एसएचओ से लेकर एसपी तक अधिकारियों के तबादले करने के आदेश दे दिए हैं। दरअसल इन विवादों की जड़ भ्रष्ट राजनीति है। यह जनता की जिम्मेवारी है कि वह चुनाव में ऐसे नेताओं को विजेता बनाएं जो भ्रष्टाचार से रहित व इमानदार हों। अधिकारियों के चयन के लिए बनी समितियों के गठन पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है।

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