उत्तराखंड में क्यों आई जलप्रलय?

Glacier

खास मुलाकात: भू वैज्ञानिक और आईआईटी रुड़की के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सौरभ विजय के साथ

चंडीगढ़ (अनिल कक्कड़)।
डॉ. सौरभ विजय, जोकि अलास्का, ग्रीनलैंड और हिमालय के लगभग 3 हजार से ज्यादा ग्लेश्यिर्स की स्टडी कर चुके हैं। डॉ. विजय ने अपनी पढ़ाई डैनमार्क, जर्मनी और अमेरिका से पूरी की। अर्थ साइंटिस्ट डॉ. विजय रिमोट सैंसिंग के क्षेत्र में विशेषज्ञ हैं और फिलहाल इंडियन इंटस्टिच्यूट आफ टैक्नोलॉजी (आईआईटी), रुड़की में अध्यापन का कार्य कर रहे हैं। पेश हैं उनसे उत्तराखंड के चमोली में आई बाढ़ के संदर्भ में हुई बातचीत के कुछ अंश…

सवाल : डॉ. विजय ये बताएं कि चमोली में आए फलैश फ्लड का वास्तविक कारण क्या मानते हैं?

जवाब : इसका जवाब हम गूगल अर्थ से प्राप्त इमेज्स से समझते हैं, लेकिन उससे पहले में आपको इस क्षेत्र के बारे में बताता हूँ। ये क्षेत्र ऋषि गंगा का क्षेत्र है यहां ऋषि गंगा नदी बहती है। इसके साथ ही धौली गंगा बहती है और जहां इनका संगम होता है, उसके बाद से अलकनंदा नदी में परिवर्तित हो जाती हैं। इसके आस-पास इंसानी बस्तियां हैं और हाइड्रोपावर प्रोजैक्ट था, जिसे काफी नुकसान हुआ है। ऋषि गंगा वैली में ये ग्लेश्यिर हैंगिग था, मतलब लटकता हुआ ग्लेश्यिर था, आम तौर पर हिमालय में ग्लेश्यिर्स की ढलान काफी समतल होती है, 15 डिग्री के आसपास। लेकिन ये ग्लेश्यिर हैंगिंग था, 40 डिग्री से ज्यादा ढलान थी। 7 फरवरी को सुबह करीबन 9.30 बजे के आसपास, हिमस्खलन और भू-स्खलन, जिसे हम आइसरॉक ऐवेलांच कह सकते हैं, उसकी वजह ये टूटा और ऋषि गंगा वैली में गिर गया। ये केदारनाथ त्रासदी से अलग है, यहां कोई पानी की झील जो, ग्लेश्यिर्स में होती है, वो टूटी थी। ऐसा ऋषिगंगा हादसे में नहीं था। इसमें थ्योरी के अनुसार नदी में बहता रहने वाले पानी को इस टूटे ग्लेश्यिर की बर्फ और पहाड़ की मिट्टी ने रोका, तो कुछ समय के लिए नदी के उपरी हिस्से में पानी इकट्ठा हो गया। लेकिन कुछ समय बाद ही इकट्ठा हुआ पानी एक दम से नदी में आ गया। जिस वजह से इतना पानी और मलबा आया, जिससे बड़ा नुकसान हुआ है।

सवाल : क्या ग्लेशियर्स टूट-फूट रहे हैं, क्या ऊपर झीलें बनती हैं, जो अचानक फूट पड़ती हैं?

जवाब : देखिए, पूरे हिमालय में बहुत सी ग्लेश्यिर्स लेक या झीलें हैं, ये ग्लेश्यिर की सतह पर बनती हैं। फिर वो धीरे-धीरे बर्फ पिघलती है तो लेक का साइज बढ़ता रहता है, और ये झील ग्लेश्यिर्स के पास ही बनती हैं, जिससे ग्लेश्यिर्स की बर्फ भी टूट-टूट कर उसी झील में गिरती रहती है। इससे धीरे-धीरे झील में पानी का स्तर बढ़ता रहता है और झील का साइज भी। तो बिल्कुल, ग्लेश्यिर्स झीलें बढ़ रही हैं और इनका साइज भी बढ़ रहा है। अगर इनके टूटने से आने वाली बाढ़ों से बचना है और इन्हें यूज लाया जाए, इस पर ध्यान देना है तो बहुत ही इन्कलूजिव स्टडीज की जरूरत है। ताकि हम अपना इंफ्रास्ट्क्चर और बेहतर बनाएं, जिससे इन झीलों के अचानक टूटने से होने वाली तबाही का नुकसान कम से कम हो।

सवाल : ग्लेश्यिर्स के पिघलने की गति तेज हो रही है, वैज्ञानिक दृष्टि से उनका स्वास्थ्य कमजोर हो रहा है, इस बारे में बताएं।

जवाब : अगर, आम तौर पर देखा तो हिमालय के ग्लेश्यिर्स की हैल्थ खराब हो रही है। पिछले वर्ष एक स्टडी प्रकाशित हुई, जिसमें अमेरिकी वैज्ञानिक भी शामिल थे, उन्होंने 1960 से लेकर 2015 तक की हिमालय के ग्लेश्यिर्स की पूरी स्टडी की। और उन्होंने पाया कि लगभग सन् 2000 के बाद ग्लेश्यिर्स पिघलने की गति वो बहुत ज्यादा बढ़ी है। स्टडी में 1960 से 1990 और 1990 से 2015 के समय अंतराल की तुलना की तो पाया कि बर्फ पिघलने की गति बाद के अंतराल में बहुत ज्यादा बढ़ी है। तो बिल्कुल ग्लेश्यिर्स की हालत कमजोर है और ये पूरे हिमालय की कहानी है। ये ग्लेश्यिर्स हमें विरासत में मिले हैं, देश में मानसून से पानी की सप्लाई पूरे देश में होती है, ये हमारी सभ्यता से जुड़ा है। और हमारा विकास इसीलिए संभव हो सका क्योंकि मानसून के साथ-साथ ग्लेश्यिर्स से आने वाला पानी हमें मिलता है।

सवाल : हाल ही में जो हादसा हुआ किस बात का सूचक है?

जवाब : देखिए, ऐसा देखना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उतना सही नहीं है क्योंकि ऐसी कोई स्टडी फिलहाल नहीं हुई है। क्योंकि जब हम हिमालय की बात करते हैं तो जम्मू-कश्मीर से होते हुए लाहोल स्पीति से उत्तराखंड और सिक्किम, अरुणाचल भी हिमालय की ही रेंज है, साथ ही नेपाल और भूटान भी। ओवरआॅल हिमालय के ग्लेश्यिर्स की बर्फ पिघल रही है। और हिमालय में बहुत बड़ी जनसंख्या रहती है और लोगों का मुख्य धंधा टूरिज्म है तो बहुत सा ट्रांसपोर्टेशन भी होता है। और लोगों की सुविधाओं के लिए इंफ्रास्ट्क्चर भी बनता है, सड़कें, पुल, टनल भी बनती हैं। तो बिल्कुल जब इंसानी बस्तियां बढ़ रही हैं और इंफ्रास्ट्क्चर बढ़ रहा है तो उसका असर भी प्राकृति पर होता है।

सवाल : देश के पहाड़ी क्षेत्रों खास तौर पर उत्तराखंड में विकास के नाम पर जबरदस्त तरीके से वनों की कटाई, सड़कों का निर्माण, टनल्स का निर्माण जारी है, विस्फोट कर पहाड़ों को तोड़ा जा रहा है, क्या इन सब का असर ग्लेशियर्स पर भी पड़ रहा है!

जवाब : इसमें भी कहूंगा कि वैज्ञानिक अध्ययन इस विषय पर नहीं है, कि विकास के कार्यों का ग्लेश्यिर्स पर सीधा क्या असर पड़ रहा है। लेकिन इतना कहा जा सकता है कि ग्लोबल बदलाव, ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हर जगह बदलाव हो रहे हैं। वहीं विकास के नाम पर वनों की कटाई, पहाड़ों की कटाई, विस्फोट इत्यादि, इसका असर प्रकृति पर पड़ता है, ये सच है। और अब इस पर वैज्ञानिक स्टडीज भी होनी चाहिए, ताकि पता चले कि स्थानीय स्तर पर क्या-क्या बदलाव विकास के नाम पर हुए कार्यों के कारण हुए हैं।

सवाल : आजकल फिर से रन फॉर रिवर्स तकनीक पर सवाल उठाए जा रहे हैं, पाठकों को रन फार रिवर्स तकनीक के बारे में बताएं और क्या वाकई में ही ये पहाड़ों के लिए त्रासदी है, या विकास के लिए जरूरी है!

जवाब : वैसे तो जिसकी समझ हाइड्रोलिॅजी ज्यादा वो और बेहतर तरीके से रन फार रिवर्स कन्सैप्ट को समझा सकता है, लेकिन मेरे विचार से हिमालय में रहने वाली इतनी बड़ी जनसंख्या और वहां जाने वाले सैलानियों के लिए बिजली, पानी, सड़कों की सुविधाएं देनी पड़ेंगी। लेकिन साथ में विकास के कार्यों की वजह से प्राकृति में आए बदलाव को भी देखना होगा। और यह और भी महत्वपूर्ण है कि जो बदलाव प्राकृति में आए हैं उनका मौजूदा स्वरूप क्या है और क्या वे बढ़ रहे हैं, यह भी देखना जरूरी है। इस बारे में अध्ययन होने चाहिएं और बैलेंस बनाना होगा जहां विकास और प्राकृति दोनों को साथ लेकर चला जाए।

सवाल : उत्तराखंड के इस हादसे के बाद अब फिर से लोग पैरिस जलवायु समझौते पर बात करने लगे हैं, मौजूदा स्थिति में आप इसे कैसे देखते हैं, यह देश के लिए कितना जरूरी है?

जवाब : पैरिस एग्रीमेंट में साफ तौर पर कहा कि पूरी पृथ्वी का टैंपरेचर दो डिग्री से ज्यादा बढ़ने नहीं देना है, इसमें सभी देशों का सहयोग जरूरी है। इसके मौजूदा तापमान से 1.5 से 2 डिग्री ज्यादा बढ़ने को रोकने के लिए ये समझौता किया गया है। इसकी कितनी जरूरत है इससे पता चलता है कि कल तक इस समझौते से पीछे हटने वाला अमेरिका भी अब इस समझौते को अपनाने के लिए आया है और हमारे देश में भी अब इस समझौते को लेकर जागरूकता आई है। क्योंकि यदि दो डिग्री तक तापमान बढ़ गया तो नार्थ, साउथ पोल के ग्लेश्यिर्स पिघलेंगे, समुद्र का स्तर बढ़ जाएगा, बारिशें नहीं होंगी तो जीवन समाप्ति की ओर होगा। वहीं हिमालय के ग्लेश्यिर्स पर भी गंभीर असर होगा, बर्फ नहीं होगी तो देश में पानी की किल्लत हो जाएगी, मानसून नहीं होगा। तो सभी देशों को एकजुट होने की जरूरत है। एक और बात यहां बात सरकारों पर नहीं छोड़ी जा सकती, यहां प्रत्येक इंसान को जिम्मेवारी से अपनी भूमिका निभानी होगी, क्योंकि पृथ्वी हम सभी इंसानों का घर है।

सवाल : जो हादसा उत्तराखंड में हुआ, क्या उसे वहीं तक सीमित माना जाए, या जिन कारणों से ये हादसे हो रहे हैं उनका असर मैदानों पर भी पड़ने वाला है।

जवाब : देखिए, हमें यह समझना होगा कि पूरी धरती एक सिस्टम पर चलती है। पहाड़ों के अंदर कुछ भी बदलाव हुए उसका असर मैदानों पर जरूर होगा। और जो मैदानों में किया जा रहा है, उसका असर भी पहाड़ों पर हो रहा है। ये पूरा सिस्टम है। चमोला हादसे की शुरूआत 6 हजार मीटर पर हुई और जो हाइड्रो-पॉवर प्लांट तबाह हुआ है, उसकी ऊंचाई केवल 2.5 हजार मीटर पर थी, तो कुछ ही पलों में वह त्रासदी यहां पहुंच गई। निश्चित तौर पर इसके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव दोनों ही जगह देखने को मिलते हैं। इसकी वजह प्रकृति का आपसी संबंध है। ऐसी त्रासदियां एक जगह तक ही सीमित नहीं होती, इनका असर दूर तक होता, उसका रूप चाहे कोई भी हो।

सवाल : क्या मैदानों में रहने वाले लोग भी ऐसे हादसों को कम करने में अपना योगदान दे सकते हैं?

जवाब : बिल्कुल, मैदान में रहने वाले लोग सोलर एनर्जी पर अपनी निर्भरता बढ़ाएं, हम यहां रुड़की आईआईटी में हैं और यहां की हर बिल्डिंग में बिजली की सप्लाई सौर ऊर्जा से होती है, हर छत पर सौर पैनल लगे हैं। दूसरा कम से कम प्लास्टिक का यूज हो, साथ में ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए जाएं ताकि कार्बन गैसों का फैलाव कम हो और पेड़ कार्बन गैसों को सोख लें। इसी के साथ ग्लोबल वार्मिंग के कारणों, उसके नतीजों की जानकारी होना बहुत जरूरी है, असल में अब वक्त आ गया है कि पूरे देश को जागरूक होना होगा।

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